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________________ २४ / जैन दर्शन और अनेकान्त कोई द्रव्य आपको नहीं मिलेगा। आदमी एक पर्याय है। नीम कोई द्रव्य नहीं है। वह एक पर्याय है। दुनिया में जितनी वस्तुओं को हम देख रहे हैं, वे सारी की सारी पर्याय हैं। हम पर्याय को देख रहे हैं। द्रव्य हमारे सामने नहीं आता। वह आंखों से ओझल रहता है । इस सत्य को आचार्य हेमचंद्र ने इन शब्दों में प्रकट किया था अपर्ययं वस्तु समस्यमान । मद्रव्यमैतच्च विविच्यमानं । हम अभेद के परिपार्श्व में चलें तो पर्याय लुप्त हो जाएगा, बचेगा द्रव्य । हमारी दुनिया बहुत छोटी हो जाएगी। विस्तार से शून्य हो जाएगी। हम भेद के परिपार्श्व में चलें तो द्रव्य लुप्त हो जाएगा, बचेगा पर्याय । हमारी दुनिया बहुत बड़ी हो जाएगी। भेद-अभेद को निगल जाएगा। केवल विस्तार और विस्तार। परिणमन के जगत् में जैसा जीव है, वैसा ही पुद्गल है। किन्तु इस विश्व में जितनी अभिव्यक्ति पुद्गल द्रव्य की है, उतनी किसी की नहीं है । अपने रूप को बदलने की क्षमता जितनी पुद्गल में है, उतनी किसी में नहीं है। हमारे जगत् में व्यक्त पर्याय का आधारभूत द्रव्य यदि कोई है तो वह पुद्गल ही है। अनेकान्त ____ अनेकान्त के दो रूप हैं—नय और प्रमाण । द्रव्य के एक पर्याय को जानने - वाली दृष्टि नय है और अनन्त विरोधी युगलात्मक समग्र द्रव्य को जानने वाली दृष्टि प्रमाण है। जैन दर्शन में नयवाद का विकास पहले हुआ था और प्रमाणवाद का विकास बाद में। भगवान् महावीर के अस्तित्वकाल में नयवाद प्रचलित था। उनके निर्वाण की छठी-सातवीं शताब्दी के बाद प्रमाणवाद का विकास हुआ। दार्शनिक युग में प्रमाण-मीमांसा विकसित हुई, तब जैन दार्शनिकों के सामने भी प्रमाण-मीमांसा को विकसित करने की अनिवार्यता उपस्थित हुई। समन्तभद्र और सिद्धसेन ने नय को ही प्रधानता दी। हरिभद्र और अकलंक के युग में 'प्रमाण' को प्रधानता मिल गई। उस युग में एक प्रश्न उपस्थित हुआ कि नय प्रमाण है या अप्रमाण? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया, नय के द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तु का एक धर्म ही ज्ञेय होता है। अखंड वस्तु ज्ञेय नहीं होती। इस दृष्टि से उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता। दूसरा तर्क यह था कि नय के द्वारा वस्तु का एक धर्म ज्ञेय बनता है, वह भी यथार्थ ज्ञान है और यथार्थ ज्ञान को अप्रमाण कैसे कहा जा सकता है। इस दोहरी समस्या को ध्यान में रखकर तीसरा विकल्प खोजा गया—नय से अखंड वस्तु का निश्चय नहीं होता, इस अपेक्षा से नय प्रमाण नहीं है। उसके द्वारा Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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