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१५० / जैन दर्शन और अनेकान्त है। व्यक्ति साधना किसलिए करे? यदि आत्मा में परिवर्तन नहीं होता है तो साधना व्यर्थ है । यदि परिवर्तन होता है तो शाश्वतता का सिद्धान्त खंडित हो जाता है। दोनों ओर से विरोध प्रस्तुत हो जाता है। एकांगी दृष्टिकोण में दोनों ओर से समस्या आती
है।
तर्क जैन आचार्यों का जैनाचार्यों ने एक तर्क प्रस्तुत किया
नैकान्तवादे सुख दुःखभागो न पुण्य-पापे न बंधमोक्षौ । ___एकान्तवाद में सुख और दुःख का भोग नहीं हो सकता, बंध और मोक्ष नहीं हो सकता। पुण्य और पाप नहीं हो सकता। अगर आत्मा बदलता नहीं है तो यह नहीं माना जा सकता कि वह पहले दुःखी था और अब सुखी बन गया। पहले दुःखी था और अब सुखी बन गया, इसका अर्थ है कि आत्मा पहले एक अवस्था में था
और अब दूसरी अवस्था में आ गया, परिवर्तन हो गया। अगर आत्मा परिवर्तित नहीं होता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि पहले दुःखी था, बाद में सुखी बन गया। पहले सुखी और बाद में दुःखी, यह स्थिति परिवर्तनशील पदार्थ में ही घटित हो सकती है। इसीलिए जैनदर्शन ने आत्मा को न सर्वथा शाश्वत माना और न सर्वथा अशाश्वत माना । आत्मा शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है । आत्मा शाश्वत है, इसलिए उसका अस्तित्व नाना पर्यायों में परिवर्तित होता रहता है। वह कभी सुखी बनता है
और कभी दुःखी बनता है। वह कभी मनुष्य बनता है और कभी पशु बनता है। ___यदि आत्मा शाश्वत है तो पुण्य और पाप की व्यवस्था घटित नहीं हो सकती। वह अलिप्त है, शाश्वत है तो मानना होगा कि सारे संसार की हत्या करके भी आत्मा उसमें लिप्त नहीं हो सकता। क्योंकि वह शाश्वत है, जैसा है, वैसा ही रहता है, उसमें एक राई का भी फर्क नहीं पड़ता। इस स्थिति में न पुण्य की बात हो सकती है और न पाप की। व्यक्ति कुछ भी करे, न पुण्य होगा और न पाप होगा। यदि आत्मा शाश्वत है तो बंध और मोक्ष की व्यवस्था भी घटित नहीं हो सकती । प्रश्न होगा—आत्मा शाश्वत है तो बंध किसका और मोक्ष किसका? ये सारे परिवर्तनशील पदार्थ में ही घटित हो सकते हैं। जैनदर्शन की भाषा
जैनदर्शन के अनुसार जैसी एक आत्मा है, वैसा ही एक परमाणु है । बहुत बार कहा जाता है-आत्मा अमर है, शरीर मरता है, यह जैनदर्शन की भाषा नहीं है।
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