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________________ अनेकान्तावाद / १४९ अटक जाती है तो वह भी मिथ्या दर्शन है। द्रव्य को जानने वाली दृष्टि द्रव्य का प्रतिपादन करती है किन्तु पर्याय को अस्वीकार नहीं करती और पर्याय को जानने वाली दृष्टि पर्याय का प्रतिपादन करती है किन्तु द्रव्य को अस्वीकार नहीं करती। दोनों दृष्टियां परस्पर सापेक्ष हो जाती हैं । इसका नाम है सम्यक् दर्शन । निरपेक्ष दृष्टि मिथ्या दर्शन और सापेक्ष दृष्टि सम्यक् दर्शन । ____ अनेकान्त और सम्यक् दर्शन—दोनों समान अर्थ वाले बन जाते हैं । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-दोनों दृष्टियां अलग-अलग होती हैं तो एकान्तवाद होता है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-दोनों दृष्टियां सापेक्ष होती हैं, संयुक्त हो जाती हैं तो अनेकान्तवाद प्रस्तुत हो जाता है । दोनों दृष्टियों का अलग होना मिथ्या दर्शन है और दोनों दृष्टियों का संयुक्त होना सम्यक् दर्शन है। इसका अर्थ है-अनेकान्त और सम्यक् दर्शन—दोनों पर्यायवाची हैं, एकान्त और मिथ्यादर्शन-दोनों पर्यायवाची हैं। अनेकान्त के निष्कर्ष जैनदर्शन ने द्रव्य और पर्याय की व्याख्या अनेकान्त के आधार पर की। इसलिए जैनदर्शन न द्रव्यवादी है और न पर्यायवादी है । वह द्रव्य को भी अस्वीकार करता है और पर्याय को भी स्वीकार करता है। इसी आधार पर जैनदर्शन के सन्दर्भ में कहा गया वह न नित्यवादी है और न अनित्यवादी है किन्तु नित्यानित्यवादी है। वह न सामान्यवादी है और न विशेषवादी है किन्तु सामान्यविशेषवादी है । न एकवादी है और न अनेकवादी है, किन्तु एकानेकवादी है। वह न अस्तिवादी है और न नास्तिवादी है, किन्तु अस्तिनास्तिवादी है । ये सारे निष्कर्ष अनेकान्त के आधार पर . फलित हुए हैं। शाश्वतवाद की समस्या मूल दृष्टियां दो हैं—द्रव्यनय और पर्यायनय । जितना नित्यता का अंश है, जितना शाश्वत है, उसका प्रतिपादन करने वाली दृष्टि द्रव्यदृष्टि है, द्रव्यार्थिक दृष्टि है। जितना परिवर्तन का अंश है, जितना अनित्य है, उसका प्रतिपादन करने वाली दृष्टि पर्यायार्थिक दृष्टि या पर्यायार्थिक नय है। दो ही तत्व प्रत्येक दर्शन के सामने हैं—नित्य और अनित्य, शाश्वत और अशाश्वत । जैनदर्शन शाश्वतवादी नहीं है । शाश्वतवादी को कुछ करने की जरूरत नहीं होती। साधना का विधान बनाने की जरूरत नहीं होती। आत्मा शाश्वत है, नित्य है, जैसा है वैसा रहेगा तो साधना की कोई आवश्यकता नहीं Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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