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५४ / जैन दर्शन और अनेकान्त
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जाते हैं । विश्व के इस पृथकत्व की व्याख्या पद्धति को 'व्यवहार- नय' कहा जाता है जब विश्व की व्याख्या समस्यामान दृष्टि से की जाती है, तब वह अद्वैत का रूप लेता है और जब उसकी व्याख्या विविच्यमान दृष्टि से की जाती है, तब वह द्वैत का रूप लेता है। अद्वैत और द्वैत—दोनों एक ही विश्व के दो पहलू हैं।' अद्वैत की सर्वथा अवहेलना कर द्वैत तथा द्वैत की सर्वथा अवहेलना कर अद्वैत की व्याख्या नहीं की जा सकती । जब हम केन्द्रोन्मुखी दृष्टि से देखते हैं, तब हम द्वैत से अद्वैत की ओर बढ़ते हैं । जब हम परिणामोन्मुखी व विकेन्द्रीकरण की दृष्टि से देखते हैं तब हम अद्वैत से द्वैत की ओर बढ़ते हैं। हमारा विकेन्द्रित दशा का चरम बिन्दु केन्द्र-लक्षी है और केन्द्रित दशा का चरम बिन्दु विकेन्द्र-लक्षी है—
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०००० पर्याय
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००००
धर्म
प्रदेश
अधर्म
सत्ता
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द्रव्य
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जीव
प्रदेश प्रदेश
आकाश
प्रदेश
१. जैनसिद्धान्तदीपिका (प्रथम संस्करण), प्रकाश १, सूत्र ४१-४३ ।
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गुण०००००
पुद्गल
परमाणु
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०
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