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स्यावाद और जगत् / ५३ परिवर्तन विलक्षण होता है, इसलिए वह भेद है। केवल अभेदात्मक या केवल भेदात्मक दृष्टिकोण से विश्व की व्याख्या नहीं की जा सकती। उसकी व्याख्या अभेद को गौण व भेद को प्रधान अथवा भेद को गौण व अभेद को प्रधान मानकर की जा सकती है। इस प्रणाली को नैगम नय कहा जाता है।
संग्रह
विश्व में अनेक धर्म ऐसे हैं, जो विलक्षण हैं, पर विलक्षणता में भी अस्तित्व या सत्ता ऐसा धर्म है, जो सबको एक साथ टिकाए और स्वरूप प्रदान किए हुए है। जब हम अस्तित्व-धर्म की दृष्टि से विश्व की व्याख्या करते हैं, तब समूचा विश्व हमारे लिए एक हो जाता है। विश्व के केन्द्र में सत्ता है । वह एक और अखंड है।
वेदान्त चेतन को केन्द्र में मानकर विश्व को एक मानता है और संग्रह-दृष्टि सत्ता को केन्द्र में मानकर विश्व को एक मानती है। वह भी सापेक्ष दृष्टि है, अर्थात् सत्ता की अपेक्षा विश्व एक है। सब धर्मों की अपेक्षा अद्वैत वेदान्त का ब्रह्म भी नहीं है और सब धर्मों की अपेक्षा अद्वैतवाद का विश्व भी नहीं है। परम संग्रह या परम एकत्व की दृष्टि में अस्तित्व के अतिरिक्त और कोई प्रश्न ही नहीं होता। वहां एक ही तत्त्व होता है—जो सत् है, वह सत्य है और जो सत्य है, वह सत् है । अद्वैत-प्रणाली को संग्रह-नय कहा जाता है। व्यवहार
आकाश सर्वत्र व्याप्त है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय असंख्य योजन तक आकाश से सहवर्ती हैं। आकाश, धर्म, अधर्म और जीव-ये चारों अमूर्त हैं, इसलिए वे अन्योन्य-प्रविष्ट रह सकते हैं । पुद्गल मूर्त है । अमूर्त और मूर्त में एकावगाह का विरोध नहीं है, इसलिए वे सभी एक साथ रह सकते हैं। सहज ही जिज्ञासा होती है-पांचों एकावगाह हो सकते हैं, तब उन्हें पृथक् क्यों माना जाए? इसका समाधान उनके विलक्षण स्वभाव के आधार पर ही किया जा सकता है। वे एक साथ रहते हुए भी अपने विलक्षण स्वभाव का परित्याग नहीं करते', इसलिए सत्ता व एकावगाह की दृष्टि से अपृथक् होते हुए भी वे विलक्षण स्वभाव परिणाम की दृष्टि से पृथक् हो
१. अण्णोणं पविसंता, दिता ओगास मण्ण मण्णस्स।
मेलंता विय निच्चं, समं, सभावं ण विजहंति ॥'
-पंचास्तिकाय ७५ ।
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