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५२ / जैन दर्शन और अनेकान्त द्वार है इन्द्रिय और दूसरा द्वार है मन । हम सबसे पहले धर्म को जानते हैं, फिर धर्मी को। धर्म, धर्मी से वियुक्त नहीं है, इसलिए हमारी इन्द्रियां जब धर्म को जानती हैं, तब भी हमारा ज्ञान सापेक्ष होता है। क्योंकि धर्मी से पृथक् स्वतंत्र धर्म का कोई अस्तित्व नहीं है। धर्मी किसी एक धर्म के माध्यम से ही अपने को व्यक्त करता है, इसलिए हमारा धर्मी का ज्ञान भी सापेक्ष होता है । इन्द्रिय और मन में निरपेक्ष ज्ञान करने की क्षमता नहीं है, अर्थात् धर्मी से वियुक्त धर्म को तथा धर्म के माध्यम के बिना धर्मी को जानने की क्षमता नहीं है । धर्म-धर्मी के इस सापेक्ष ज्ञान को 'नय-वाद' या विकलादेश कहा जाता है। जितने धर्म हैं, उतने ही वचन-प्रकार हैं। जितने वचन-प्रकार हैं, उतने ही नयवाद हैं।' द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक
द्रव्य की दो प्रधान अवस्थाएं हैं—अन्वय और परिवर्तन । परिवर्तन का क होता है और अन्वय उन क्रमिक अवस्थाओं की अटूट कड़ी होती है । तरंग एक क्रम है, जल उसमें सर्वत्र व्याप्त है। जल से तरंग को और तरंग से जल को पृथक नहीं किया जा सकता। जल और तरंग दोनों भिन्न अवस्थाएं हैं, उन्हें एक भी नहीं माना जा सकता। फिर भी हम कहीं-कहीं अन्वयी की उपेक्षा कर केवल अन्वय का प्रतिपादन करते हैं और कहीं-कहीं अन्वय की उपेक्षा कर अन्वयी का प्रतिपादन करते हैं। यह एकान्तवाद है पर यहां उपेक्षा का अर्थ निराकरण नहीं है, इसलिए यह निरपेक्ष एकान्तवाद नहीं है। अन्वयी के प्रतिपादन में अन्वय और अन्वय के प्रतिपादन में अन्वयी स्वयं-गम्य है। कभी हमारा दृष्टिकोण अन्वय-प्रधान (द्रव्यार्थिक) होता है और कभी परिवर्तन-प्रधान (पर्यायार्थिक) होता है। सच तो यह है कि हमारे जितने एकांगी दृष्टिकोण हैं, वे सब परिवर्तन-प्रधान हैं। फिर भी जब हम अन्वय का स्पर्श करते हुए परिवर्तन की व्याख्या करते हैं, तब हमारा दृष्टिकोण अन्वय-प्रधान बन जाता है और जब हम अन्वय का स्पर्श किए बिना केवल परिवर्तन की व्याख्या करते हैं तब हमारा दृष्टिकोण परिवर्तन-प्रधान बन जाता है। नैगम
अन्वय सब कालों व स्थितियों में सामान्य होता है, इसलिए वह अभेद है।
१. 'जावइयां वयण पहा, तावइया चेव होति णयवाया।'-सन्मति-प्रकरण, ३/४७ ।
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