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स्यावाद और जगत् / ५१
घ्राण
इन्द्रिय-ज्ञान सीमित है और हमारी भाषा की भी निश्चित सीमा है। प्रत्येक वस्तु अपने-आप में असीम है । ससीम के द्वारा असीम का दर्शन और निरूपण जो होता है, वह सापेक्ष ही होता है। धर्मी के एक धर्म के द्वारा जो आकलन व निरूपण होता है, वह अभेद-वृत्ति या अभेदोपचार से होता है। एक धर्म का आकलन या निरूपण स्वाभाविक सहज शक्ति से होता है। हमारी इन्द्रियां एक धर्मग्राही हैं। हमारा जो दृश्य-जगत् है, वह पौद्गलिक है। स्पर्श, रस, गंध और रूप-ये पुद्गल के गुण हैं और शब्द उसका कार्य है। हमारी पांचों इन्द्रियां क्रमश: इन्हें ग्रहण करती हैंस्पर्शन
स्पर्श रसन
रस
गंध चक्षु श्रोत्र
शब्द इन्द्रियां : वर्तमान का ज्ञान
आम में स्पर्श आदि चारों गुण होते हैं। चारों इन्द्रियां उसे पृथक्-पृथक चार रूपों में ग्रहण करती हैं। स्पर्शन-इन्द्रिय के लिए वह एक स्पर्श है, रसन-इन्द्रिय के लिए वह एक रस है, घ्राण-इन्द्रिय के लिए वह एक गंध है, चक्षु-इन्द्रिय के लिए वह एक रूप है । इन्दियां ऋजु हैं, वे वर्तमान को जानती हैं, अतीत का चिन्तन और भविष्य की कल्पना उनमें नहीं होती। वे अपने-अपने विषय को जान लेती हैं, पर सब विषयों को मिलाकर जो एक वस्तु बनती है, उसे नहीं जान पातीं। स्पर्श, रस, गंध और रूप में भी अनन्त तारतम्य होता हैस्पर्श एकगुण संख्यातगुण असंख्यगुण अनन्तगुण रस
गंध
रूप
नयवाद
इन्द्रियां नहीं जान पातीं कि तारतम्य के आधार पर किस वस्तु को क्या कहना चाहिए। इसकी व्यवस्था मन करता है। वह इन्द्रियों के द्वारा गृहीत धर्मों को धर्मी के साथ संयुक्त कर देता है । चक्षु-इन्द्रिय के द्वारा केवल रूपधर्म का ग्रहण होता है। मन उस रूप-धर्म के द्वारा रूपी धर्मी का भी ग्रहण कर लेता है। हमारे ज्ञान का प्रथम
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