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________________ ५० / जैन दर्शन और अनेकान्त सब धर्मों को कभी नहीं कहा जा सकता। एक काल में एक ही शब्द एक ही धर्म को व्यक्त करता है, इसलिए एक साथ अनन्त धर्मों का निरूपण नहीं किया जा सकता। इस नय-दृष्टि से द्रव्य अवाच्य भी है । प्रयोजनवश हम द्रव्य के किसी एक धर्म का निरूपण करते हैं, इस दृष्टि से वे वाच्य भी हैं । जब हम एक धर्म के द्वारा अनन्तधर्मात्मक द्रव्य का निरूपण करते हैं तब हमारी दृष्टि और हमारा वचन सापेक्ष बन जाते हैं। हम उस विवक्षित धर्म को अनन्तधर्मात्मक द्रव्य का प्रतीक मानकर एक के द्वारा सकल का निरूपण करते हैं । इस नियम को सकलादेश कहा जाता है। स्यात् शब्द इसी सकलादेश का सूचक है। जहां हमें एक धर्म के द्वारा समग्र धर्मों का निरूपण करना हो, वहां स्यात् शब्द का प्रयोग कर देना चाहिए। जैसे १. स्यात् अस्ति–यहां अस्ति धर्म के द्वारा समग्र धर्मी वाच्य है। २. स्यात नास्ति—यहां नास्ति धर्म के द्वारा समग्र धर्मी वाच्य है। द्रव्य में जिस क्षेत्र और जिस काल में अस्ति-धर्म होता है, उसी क्षेत्र और उसा काल में नास्ति-धर्म होता है, एक साथ वे दोनों कहे नहीं जा सकते, इसलिए हम कहते हैं ३. स्यात् अवक्तव्य-यहां अवक्तव्य पर्याय के द्वारा समग्र धर्मी वाच्य है। इसका तात्पर्यार्थ है-द्रव्य में अस्ति-नास्ति जैसे विरोधी धर्म युर.पत् हैं, पर उन्हें कहने के लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है । वे जिस रूप में हैं, उस रूप को युगपत् वाणी के द्वारा प्रकट करना शक्य नहीं है, इसलिए वे अवाच्य हैं। धर्मग्राही : धर्मीग्राही तीनों विकल्पों का निष्कर्ष यह है कि एक धर्म को समग्रधर्मी का प्रतीक मानकर हम द्रव्य का वर्णन करें तो वह वाच्य भी है और अनेक या समग्र धर्मों को हम एक साथ कहना चाहें तो वह अवाच्य भी है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु अपनी विचित्र परिस्थिति के कारण वाच्य और अवाच्य दोनों है। स्याद्वाद धर्मीग्राही है, इसलिए उसमें अवाच्य का पक्ष प्रधान है और वाच्य पक्ष गौण है। नयवाद धर्मग्राही है, इसीलिए उसमें वाच्य पक्ष प्रधान है और अवाच्य पक्ष गौण । इन्द्रियां : ज्ञान की सीमा हमारा ज्ञेय सत्य अनन्त हैं और वाच्य सत्य उसका अनन्तवां भाग है। हमारा १. 'पण्णवणिज्जाभावा, अणंत भागो उ अभिलपाणं' - विशेषावश्यक भाष्य, १४१ । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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