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स्यावाद और जगत् / ४९ वाच्य और अवाच्य का नियम
उपनिषद् का ब्रह्म न सत् है, न असत् है, किन्तु अवक्तव्य है। उसका स्वरूप बोधक वाक्य है-नेति-नेति । वह वाणी के व्यवहार से परे है। उपनिषदों में सकम्प-निष्कम्प, क्षर-अक्षर, सत्-असत्, अणु-महान आदि अनेक विरोधी युगल ब्रह्म में स्वीकृत हैं। इसलिए वह अवक्तव्य बन गया । वेदान्त का वाच्य है—नाम रूपात्मक जगत् ।
महात्मा बुद्ध ने१. लोक शाश्वत है। २. लोक अशाश्वत है। ३. लोक सान्त है। ४. लोक अनन्त है। ५. जीव और शरीर एक है। ६. जीव और शरीर भिन्न है। इन प्रश्नों को अव्याकृत कहा है।
ऐकान्तिक शाश्वतवाद और ऐकान्तिक उच्छेदवाद उन्हें निर्दोष नहीं लगा, इसलिए वे नित्यानित्य की चर्चा में नहीं गए। उन्होंने इन प्रश्नों को अव्याकृत कहकर टाल दिया। उन्होंने जन्म-मरण आदि प्रत्यक्ष धर्मों को व्याकृत कहा। द्रव्य : वाच्य भी, अवाच्य भी
भगवान् महावीर ने विरोधी धर्मों की अवहेलना भी नहीं की और उनकी सहस्थिति से विचलित भी नहीं हुए। वे विरोधी धर्मों की सहस्थिति से परिचित हुए, अत: उन्होंने किसी एक को वाच्य और किसी दूसरे को अवाच्य नहीं माना। उनकी नयदृष्टि के अनुसार विश्व का कोई भी द्रव्य सर्वथा वाच्य नहीं है और कोई द्रव्य सर्वथा अवाच्य नहीं है। प्रत्येक द्रव्य अनन्त विरोधी युगलों का पिण्ड है। उसके
१.शेताश्वतर ४/१८ न सन्न चासत्। २. बहदारण्यक, ४/५/१५; स एष नेति नेति। ३. तैत्तिरीय २/४ यतो वाचो निवर्तन्ते। ४. कठोपनिषद् १/१२/२०; मुण्डकोपनिषद् २/२/१, श्वेताश्वतर १।८ ईशा०५ ५. मझिमनिकाय चूल मालुक्यसुत्त ६३ ६. वही, चूल मालुक्यसुत्त, ६३
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