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४/ जैन दर्शन और अनेकान्त हिसाब के बहुत अनुकूल ठहरते हैं, क्योंकि दौड़ती हुई ज्योतिर्मालाओं के प्रत्यक्ष वेग के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ब्रह्माण्ड का विस्तार-कार्य बीस अरब वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ होगा। विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी कुछ ऐसे लक्षण उपलब्ध हैं, जो इसी तथ्य को प्रकट करते हैं । अतएव ब्रह्माण्ड के अन्तत: विनाश की ओर इंगित करने वाले सारे प्रमाण काल पर आधारित उसके आरम्भ को भी निश्चयपूर्वक व्यक्त करते हैं। स्याद्वाद की भाषा
यदि कोई एक अमर स्फुरणशील ब्रह्माण्ड (जिसमें सूरज, पृथ्वी और विशालकाय लाल तारे अपेक्षाकृत नवागन्तुक है) की कल्पना से सहमत हो जाएं तो भी आरंभिक उद्भव की समस्या शेष रह जाती है। इससे केवल उद्भवकाल असीम अतीत के गर्भ में चला जाता है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने ज्योतिर्मालाओं, तारों, तारा-सम्बन्धी रजकणों, परमाणुओं और यहां तक कि परमाणु में निहित तत्त्वों के बारे में गणित की सहायता से जो भी लेखा-जोखा तैयार किया है, उसके हर सिद्धान्त की आधारभूत धारणा यह रही है कि कोई चीज पहले से विद्यमान अवश्य थी—चाहे वह उन्मुक्त न्यूट्रोन हो या शक्ति की राशि या केवल अगाध 'ब्रह्माण्डीय तत्त्व' जिससे आगे चलकर ब्रह्माण्ड ने यह रूप प्राप्त किया।
स्याद्वाद की भाषा में विश्व के स्थायित्व और परिवर्तन (आरम्भ और विनाश, रूपान्तर या अर्थान्तर) को इस रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है:
१. स्यात् नित्यं एव–एक दृष्टि से नित्य ही है। २. स्यात् अनित्यं एक-एक दृष्टि से अनित्य ही है। ३. स्यात् नित्यं स्यात् अनित्यं एक-युगपत् वस्तु नित्यानित्य ही है।
द्रव्य
केवल नित्य .....
केवल अनित्य..........
नित्यानित्य .......है। एक परमाणु विभिन्न अवस्थाओं से संक्रान्त होते हुए भी अन्तत: परमाणु ही है। वह अनन्त अवस्थाओं को और प्राप्त करके भी अन्तत: परमाणु ही रहेगा। यह नियम सभी द्रव्यों के लिए समान है।
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