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________________ १२० / जैन दर्शन और अनेकान्त वाली प्रेरणा है। भारतीय चिन्तन और दर्शन में पुरुषार्थ पर जितना बल महावीर ने दिया, उतना किसी दूसरे ने दिया या नहीं, यह खोज का विषय है। नियामक कौन ? ___ कर्मवाद और पुरुषार्थवाद—इन दोनों का अस्वीकार है ईश्वरवाद । जहां ईश्वरवाद है वहां न कर्मवाद की आवश्यकता है और न पुरुषार्थ की आवश्यकता है। जब ईश्वरवाद में ईश्वर के द्वारा सही व्यवस्था नहीं बैठी तो कर्मवाद को भी बीच में लाना पड़ा। पूछा गया-अच्छा और बुरा फल आदमी कैसे भुगतता है ? उत्तर दिया गया-ईश्वर भुगताता है । पुन: प्रश्न उभरा-ईश्वर किसी को अच्छा या बुरा फल क्यों देता है ? उत्तर दिया गया-व्यक्ति जैसा कर्म करता है, ईश्वर उसको वैसा ही फल देता है। ___ कर्मवाद के बिना व्यवस्था संगत हो ही नहीं सकती। इसलिए ईश्वरवाद में भी कर्मवाद को मानना पड़ा। कान को पकड़ना है तो सीधा ही पकड़ा जाए, टेढ़ा क्यों पकड़ा जाए, द्राविडी प्राणायाम क्यों जाए? आखिर जब सब कुछ कर्मवाद से ही होना है, अच्छे और बुरे का नियामक कर्म है, तो उसके लिए किसी ईश्वर को बीच में लाने की आवश्यकता नहीं है। कर्मवाद से जो हो जाता है उसके लिए किसी ईश्वर की और अपेक्षा करना प्रक्रिया गौरव है। तर्कशास्त्र में कहा गया प्रक्रियागौरवं यत्र, तं पक्ष न सहामहे ।। प्रक्रियालाघवं यत्र, तं पक्षं रोचयामहे ।। जिसमें प्रक्रिया का गौरव होता है, उस पक्ष को सहन नहीं किया जा सकता। जिसमें प्रक्रिया का लाघव होता है, वही पक्ष रुचिकर हो सकता है। जैनदर्शन में कर्मवाद ___ व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ अपना कर्म और अपना फल देता है। इनमें ही वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य का नियोजन करता है। जैनदर्शन ने व्यक्तित्व, कर्तृत्व और फल भाक्तृत्व की व्याख्या कर्मवाद के आधार पर की। उसने कर्मवाद को एक नया आयाम दिया। जैनदर्शन का कर्मवाद शायद भारतीय दर्शन में एक प्रकार का विशिष्ट कर्मवाद है। कर्मवाद के सन्दर्भ में उसकी कुछ अवधारणाएं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। कर्म पौद्गलिक होता है। कर्म आत्मिक नहीं है, चैतसिक नहीं है, पौगलिक है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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