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आत्मवाद के विविध पहलू / ९९ दूसरा आदमी दुःख की सामग्री जुटा सकता है पर किसी को दुःखी बना नहीं सकता । दुःखी होना अपने हाथ में है। जैनदर्शन का प्रसिद्ध सूत्र है-अप्पा कर्ता विकता य दुहाण या सुहाण य'-सुख-दःख की कर्ता और विकर्ता अपनी आत्मा है। यदि दूसरा कर्ता होता तो यह सिद्धांत गलत हो जाता। किन्तु यह सिद्धांत सही है, दूसरा कोई कर्ता नहीं है । कर्ता अपनी ही आत्मा है। सन्दर्भ सुख का
सुख के संदर्भ में भी यही तथ्य सत्य की कसौटी पर खरा उतर सकता है। एक व्यक्ति बहुत उदास था, बहुत दु:खी था । उसे संवाद मिला था कि तुम्हारा जवान लड़का मर गया है। नौकर उसके दुःखी एवं उदास होने का कारण नहीं समझ पाए। उन्होंने सोचा आज स्वामी उदास कैसे? वे हर सुविधा जुटाना चाहते थे, उदासी मिटाने के लिए। गर्मी का मौसम था, पंखा चला दिया, वातानुकूलन शुरू हो गया। पीने के लिए ठंडा पेय सामने रख दिया। जितनी सुविधाएं जुटाई जा सकती थीं, वे सारी जुटा दी, किन्तु उदासी नहीं मिटी। वह भोजन करता है। सारी बढ़िया सामग्री सामने पड़ी है, पर मन में भयंकर दुःख और कष्ट है। सारी सुविधा की सामग्री और सुख की सामग्री होने पर भी वह बड़ा दुःखी है, बेचैन है । कोई किसी को सुखी बना नहीं सकता। दूसरा केवल सुख-सुविधा की सामग्री जुटा सकता है। चिन्ता है शरीर की
कोई पैदल चलता है तो दूसरा कहता है—देखो ! बेचारा शरीर को कितना सता रहा है ! एक व्यक्ति गर्मी में बैठा है, पंखा नहीं चलाता है तो देखने वाला कहता है शरीर को कितना सताया जा रहा है। सर्दी को सहना, गर्मी को सहना और कष्ट को सहना, इसका अर्थ हो गया शरीर को सताना । शरीर को सताया जा रहा है-इसकी चिन्ता है किन्तु आत्मा को सताया जा रहा है-इसकी कोई चिन्ता नहीं
व्यक्ति का सारा दृष्टिकोण शरीरलक्षी है। साधना का सूत्र है आत्माभिलक्षी होना। आत्मा के कर्तृत्व और आत्मा के भोक्तृत्व से साधना का यह सूत्र फलित हुआ। आत्मलक्षी दृष्टिकोण में शरीर का संयम महत्त्वपूर्ण होगा। शरीर का संयम होता है तो चंचलता कम होती है। आसन करने से, पद्मासन में बैठने से, शरीर को कष्ट होता है। सर्दी को सहना, गमी को सहना, आने वाले सारे तापों को सहना, शरीर को कष्ट देना है। यदि आत्मा का कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं है तो सहने की
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