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९८ / जैन दर्शन और अनेकान्त होता है दुनिया में कोई किसी को सुख-दुःख नहीं देता। यह मानना मिथ्या है कि अमुक आदमी ने मुझे सुख दिया और अमुक आदमी ने मुझे दुःख दिया। साधक कभी अपने सुख और दुःख को दूसरे पर आरोपित नहीं कर सकता। इस तथ्य को समझने में कुछ कठिनाई हो सकती है। प्रत्येक आदमी कहता है-उसने मुझे सुखी बना दिया और उसने मुझे बड़ा दुखी बना दिया। सुख-दुःख का आरोपण दूसरों पर होता है। आदमी अपने आपको बचा लेता है और दूसरों पर आरोपण कर देता है। यह मिथ्या भ्रम है। इसका टूटना बहुत जरूरी है।
दूसरा आदमी कुछ भी नहीं करता, ऐसी बात नहीं है । वह किसी को सुख देना चाह सकता है और किसी को दुःख देना भी चाह सकता है। किन्तु उसके वश में नहीं है कि वह किसी को सुख दे सके और किसी को दुःख दे सके। वह केवल सुख के साधनों को जुटा सकता है, दुःख के साधनों को जुटा सकता है। वह दुःख देने वाले वातावरण और परिस्थिति का निर्माण कर सकता है, सुख देने वाले वातावरण या परिस्थिति का निर्माण कर सकता है। इससे आगे उसकी सीमा समाप्त हो जाती है। वह सुख-दुःख दे नहीं सकता, उनका निमित्त बन सकता है। संदर्भ दुःख का ___ एक साधक ध्यान की मुद्रा में खड़ा था। उसे देखते ही एक मनुष्य के मन में प्रतिशोध की आग भभक उठी। उसने सोचा यह कैसा आदमी है ! मेरी कन्या के साथ इसकी शादी निश्चित की गई और यह उसे छोड़कर संन्यासी बन गया। इस चिन्तन से उसके प्रतिशोध की आग अत्यधिक तीव्र बन गई। उसने सोचा-~-इसे
अभी मार डालूं। पास ही श्मशान में आग जल रही थी। समीपस्थ तालाब में गीली मिट्टी थी। वह मनुष्य मिट्टी ले आया और उसने साधक के सिर पर पाल बांध दी। उस पाल में उसने जलते हुए अंगारे लाकर रख दिए।
हम इस भाषा में सोचेंगे-उसने साधक को कितना दुःखी बना दिया। किन्तु जिसे दुःखी बनाया गया, वह क्या सोचता है?-यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह आत्मलीन बन गया। वह परम ज्ञान एवं परम आनन्द भोग रहा है । कैवल्यज्ञान की प्राप्ति, मोहनीय कर्म का विलय और अनंत आनन्द उसमें प्रकट हो गया। वह सुख में डूब गया। बाहर से देखने वाला सोचता है—बेचारा कितना दुःखी है और करने वाला समझता है—मैने प्रतिशोध ले लिया, बदला ले लिया, दुःखी बना दिया। इन दोनों में कहीं कोई तालमेल नहीं है।
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