SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० / जैन दर्शन और अनेकान्त कोई जरूरत नहीं है । सुख-दुःख को करने वाली आत्मा है इसलिए सहना आवश्यक है । आत्मलक्षी होना शरीरलक्षिता को कम करना है। इससे सहन करने की बात स्वतः फलित होती है । दर्शन की दो धाराएं दर्शन के क्षेत्र में दो धाराएं हैं- एकात्मवाद और अनेकात्मकवाद । कुछ दर्शनों का मत है— आत्मा एक है। जैनदर्शन अनेकात्मवादी है । उसके अनुसार आत्मा अनंत हैं । प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है, कोई आत्मा ईश्वर का अंश नहीं है, ब्रह्मा का अंश नहीं है और न कोई माया या प्रपंच है। हर आत्मा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है । संख्या की दृष्टि से अनंत अनंत आत्माएं हैं और उन सबका अपना-अपना कार्य है । अकेली आत्मा जन्म लेती है; अकेली आत्मा मरती है और अकेली आत्मा अपने सुख-दुःख का संवेदन करती है। उसका कोई हिस्सा नहीं बंटाता, उसमें कोई भागीदार नहीं बनता । सब कुछ अपना होता है । हो सकता है— इससे स्वार्थवाद के पनपने की संभावना की जा सके । प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है और सब कुछ अपना-अपना है, अपना सुख और अपना दुःख, अपना संवेदन और अपना ज्ञान, अपना जन्म और अपनी मृत्यु — यह नितान्त स्वार्थवाद है। अपनी ही चिन्ता करो, दूसरों की चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं । अपना किया कर्म अपने को भोगना है, दूसरा कोई बीच में नहीं आता । अच्छा करता है तो अच्छा भोगता है और बुरा करता है तो बुरा भोगता है । न बाप काम आता है, न माता काम आती है, न भाई काम आता है, न और कोई काम आता है । इससे स्वार्थवादी भावना पनपेगी। बस, अपना करो और अपना भोगो, दूसरों से क्या लेना-देना । प्रत्येक व्यक्ति सोचेगा - मैं दूसरों के लिए क्यों करूं ? दूसरे के लिए क्यों कर्म बांधू ? मेरा कर्म मुझे भुगतना है। एक ओर स्वार्थवाद का यह स्वर मिलता है तो दूसरी ओर मिलता है महायान का— जब तक सब जीवों की मुक्ति नहीं होती, तक तक मैं मोक्ष में जाना नहीं चाहता। एक ओर सबकी मुक्ति का विचार और दूसरी ओर अपनी मुक्ति का विचार । मुझे मुक्त होना है, दूसरों की दूसरे जानें, मुझे कोई चिन्ता नहीं है। अपनी मुक्ति का विचार और समष्टि की मुक्ति का विचार - दोनों दृष्टिकोणों में बड़ा अन्तर है । वास्तविक सच्चाई क्या है ? क्या यह मान लिया जाए – स्वतन्त्र या प्रत्येक आत्मा की भावना ने मनुष्य में स्वार्थ की भावना पैदा की है ? मनुष्य स्वार्थी बना है ? इसके दो पहलू हैं- दार्शनिक Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy