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________________ १५६ / जैन दर्शन और अनेकान्त दो निश्चित तत्त्व बन जाते हैं—ज्ञान और आचार । अणुव्रत और महावत नैतिकता है आचार का अनुशीलन करने पर एक नया तथ्य प्रस्तुत हुआ । आचार दो भागों में विभक्त होता है-आत्माभिमुखी और समाजाभिमुखी । अपने प्रति और दूसरे के प्रति । जो अपने प्रति है, वह आत्माभिमुखी है। पांच महाव्रत और पांच अणुव्रत—ये दोनों समाजाभिमुखी आचार हैं। किसी जीव को नहीं मारूंगा' इसका सम्बन्ध दूसरे से है। किसी विषय को लेकर झूठ नहीं बोलूंगा' इसका संबंध है समाज से । 'चोरी नहीं करूंगा', 'अब्रह्मचर्य नहीं करूंगा', 'अमुक मात्रा से अधिक परिग्रह नहीं रखूगा' इनका सम्बन्ध भी समाज से है। पांचों महाव्रत समाजाभिमुखी हैं, पांच अणुव्रत समाजाभिमुखी हैं। ये व्रत और महाव्रत ही नैतिकता है। धर्म की व्याख्या : समाजाभिमुखी आश्चर्य होता है-धर्म की व्याख्या, साधु या श्रावक की व्याख्या, समाजाभिमुखी व्रतों से जुड़ी हुई है। उसमें आत्माभिमुखी वाली बात कुछ गौण हो जाती है। इससे यह यह पता चलता है कि साधुपन की सीमा, श्रावकपन की सीमा, समाज से ज्यादा जुड़ी है और उसकी पृष्ठभूमि में आत्माभिमुखता है। इसलिए पांच महाव्रत के साथ साधुत्व का संबंध जुड़ गया और तीन गुप्तियां पृष्ठभूमि में रह गयीं। गुप्तित्रय की साधना-अपने मन का संयम करना, अपनी वाणी का नियंत्रण करना और अपने शरीर का नियंत्रण करना—यह नितांत आत्माभिमुखी बात है ।साधु जीवन के तेरह व्रत होते हैं—पांच महाव्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तियां । इनमें पांच महाव्रत समाजाभिमुखी हैं, पांच समितियां भी प्राय: समाजाभिमुखी, पदार्थाभिमुखी हैं किन्तु तीन गुप्तियां नितांत आत्माभिमुखी हैं। नैतिकता का आधार ___ हमारे आचार के दो पहलू बन गए—एक आत्माभिमुखी पहलू और दूसरा समाजाभिमुखी पहलू। आत्माभिमुखी पहलू है अध्यात्म, संयम और ध्यान । समाजाभिमुखी पहलू है नैतिकता। इस संदर्भ में नैतिकता की यह एक सुन्दर परिभाषा फलित हो जाती है। नैतिकता शब्द नहीं है पर इस परिभाषा के आधार पर हम आचार के साथ नैतिकता का प्रयोग कर सकते हैं। प्रश्न होता है—नैतिकता का आधार क्या है? उसका आधार है आनन्द, पवित्रता और शक्ति का अर्जन । जिस Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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