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नैतिकता की धारणा
नैतिकता : पाश्चात्य संदर्भ
नैतिकता शब्द बहुत चर्चित रहा है। यूनानी दार्शनिकों ने नैतिकता की विस्तृत चर्चा की, किन्तु जैन धर्म में नैतिकता जैसा शब्द उपलब्ध नहीं होता । उसमें केवल धर्म शब्द उपलब्ध होता है। धर्म के अतिरिक्त नैतिकता की कोई चर्चा नहीं है । प्रश्न होता है- क्या जैन धर्म में नैतिकता के बारे में कुछ कहा नहीं गया, कुछ सोचा नहीं गया या वह किसी रूप में उपलब्ध है ? धर्म के दो अंग माने गये हैं-ज्ञान और आचार | श्रुत धर्म और चारित्र धर्म । सुकरात ने नैतिकता की चर्चा की है। उन्होंने धर्म का लक्ष्य माना है— परम शुभ को प्राप्त करना। उनकी भाषा में परम शुभ है ज्ञान । यानी ज्ञान से अतिरिक्त कोई नैतिकता नहीं है। जैनधर्म में पहला धर्म श्रुत माना गया है । आचार दूसरे नम्बर पर है। तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो ज्ञान प्रथम और परम शुभ है। दोनों विचार बहुत निकट आ जाते हैं। महावीर ने कहा— जो नहीं जानता, वह क्या करेगा ? वह व्यक्ति श्रेय का क्या आचरण करेगा, जो श्रेय और अश्रेय नहीं जानता । यह वास्तव में सही बात है। जो श्रेय और पाप को जानता ही नहीं है वह अज्ञानी क्या करेगा ? पश्चिमी दर्शन में शुभ और अशुभ की बहुत चर्चा है । दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है - जो अज्ञानी है वह क्या जानेगा कि यह श्रेय है और यह पाप है। श्रेय शुभ है और पाप अशुभ है। श्रेय और अश्रेय — इन दोनों का सम्बन्ध ज्ञान के साथ है। इस दृष्टि से नैतिकता का एक आधार बनता है ज्ञान । ज्ञान से जुडा है आचार
पहले आचार का ज्ञान होना जरूरी है। ज्ञान के बाद ही आचार का अनुशीलन किया जा सकता है । सुकरात ने केवल ज्ञान को ही परमशुभ माना, नैतिकता माना । जैन दृष्टि से यह एकांगी दृष्टिकोण सम्मत नहीं है। ज्ञान के साथ-साथ आचार भी नैतिकता का अंग है। ज्ञान और आचार- ये दोनों ही धर्म के अंग हैं। अकेला ज्ञान पर्याप्त नहीं है। ज्ञान जानने का परम बिन्दु है । किन्तु ज्ञान परम बिन्दु तक नहीं जाता । उसकी अभिव्यक्ति या क्रियान्विति आचार में बदल जाती है। नैतिकता के
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