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१५४ / जैन दर्शन और अनेकान्त मूल की खोज
एक मनुष्य है। प्रश्न होता है क्या वह मनुष्य ही है? वह मनुष्य से पहले भी कुछ है, उसके बाद भी कुछ है ? इस खोज में चलें तो हम द्रव्य तक पहुंचेंगे। जो कपड़ा अभी है, क्या वह पहले भी था, बाद में भी होगा? इस खोज में चलें तो हम परमाणु तक पहुंचेंगे। यह मूल द्रव्य की खोज आगे की खोज है, सूक्ष्मतम तत्त्व की खोज है। पर्याय की खोज स्थूलतत्व की खोज है, सामने दिखने वाले पदार्थ की खोज है। हम केवल पर्याय या परिवर्तन पर अटके न रहें, मूल द्रव्य की खोज में आगे बढ़ते चले जाएं, इसके सिवाय कोई गंतव्य नहीं है। समाधान है अनेकान्त
यह अनेकान्त का दार्शनिक पक्ष है। हम अनेकान्त की जैन परम्परा के सन्दर्भ में समीक्षा करें। जैन परम्परा में आज अनेक सम्प्रदाय हैं, उनमें अनेक मतभेद भी हैं। यदि अनेकान्त के आधार पर मतभेद का मूल खोजा जाए, भिन्न विचारों की समीक्षा की जाए तो शायद भेद के लिए कितना बचेगा, मैं कह नहीं सकता। हो सकता है कुछ भी न बचे। किन्तु इस दिशा में बहुत कम काम हुआ है। अनेक प्रसंगों में आग्रह बढ़ाने में रस लिया गया, अनेकान्त का प्रयोग नहीं किया गया।
आज हमारे सामने प्रश्न है-जैन समाज को विरासत में जो एक महान् दर्शन मिला है, जगत् को देखने का एक सम्यक् और व्यापक दृष्टिकोण मिला है, यदि उसका सम्यक् प्रयोग किया जाए तो शायद अनेकान्तवाद पूरे संसार को एक नया दृष्टिकोण और एक नया दर्शन दे सकता है। अनेकान्तवाद का यह दृष्टिकोण अनेक मिथ्या अभिनिवेशों, आग्रहों को मिटाने और एक सामंजस्यपूर्ण समाज की संरचना करने में बहुत सहयोगी बन सकता है, उपयोगी हो सकता है।
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