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अनेकान्तावाद / १५३
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द्रव्य है या पर्याय । हमारा दृष्टिकोण यह होना चाहिए— मकान एक पर्याय है । हम जो कपड़ा पहने हुए हैं, वह एक पर्याय है । जो पर्याय होता है, वह परिवर्तनशील होता है । वैराग्य का विकास परिवर्तनवाद के आधार पर होता है । वैराग्य के विकास का बहुत बड़ा आधार बनता है पर्यायवादी । अभी एक कपड़ा साफ-सुथरा और बढ़िया लग रहा था किन्तु थोड़ी देर बाद मैला हो जाएगा। कुछ दिनों के बाद वह फट जाएगा और कुछ समय के बाद वह समाप्त हो जाएगा । वह क्षणभंगुर है । शरीर की भी यही अवस्था है, हर पदार्थ की यही अवस्था है । एक पदार्थ अभी बहुत अच्छा है किन्तु कुछ ही समय के बाद वह बदल जाएगा, विगड़ जाएगा। इस परिवर्तनवाद के आधार पर वैराग्य का विकास हुआ। शाश्वतवाद के आधार पर वैराग्य जैसी कोई चीज बनती ही नहीं है । जो शाश्वत है, जैसा है, वैसा ही रहेगा, इसमें क्या राग होगा और क्या विराग होगा ? राग और विराग - दोनों परिवर्तनवाद के आधार पर बनते हैं ।
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पर्याय कहां से आता है ?
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हम परिवर्तन को देखें । व्यक्ति का दृष्टिकोण पहले परिवर्तनवादी होगा । हम पहले द्रव्य तक नहीं पहुंच पाएंगे। हम पहले पहुंचेंगे पर्याय तक । हमारी दृष्टि विशेषग्राही दृष्टि है । जिसे अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध हो गया, वह पहले सामान्य तक पहुंच सकता है, मूल द्रव्य तक पहुंच सकता है । किन्तु जिसकी दृष्टि बहुत सीमित है, ज्ञान बहुत सीमित है, वह पर्याय को देखेगा, पर्याय के आधार पर सारा ज्ञान करेगा। हम जितने पदार्थ देखते हैं, देख रहे हैं, वे सबके सब पर्याय हैं, मूल एक भी नहीं है । मूल है परमाणु और परमाणु को जानने की हमारी क्षमता नहीं है ।
पर्यायार्थिक नय हमारे सामने स्पष्ट है । प्रश्न उपस्थित किया गया— पर्याय कहां से आता है ? उसका उत्स क्या है ? गंगा नदी बह रही है, यमुना नदी बह रही है । नदी का प्रवाह है, पीछे से पानी आ रहा है, आगे चला जा रहा है। यह प्रवाह — उत्पाद और व्यय - आ रहा है और जा रहा है। दिल्ली के पास यमुना बह रही है । प्रश्न हो सकता है क्या यमुना यही है ? क्या इसका मूल यही है ? पानी कहां से आ रहा है ? प्रवाह कहां से आ रहा है ? कहां जा रहा है ? इस खोज में चलें तो यमुना दिल्ली की नहीं रहेगी। गंगा और यमुना का मूल स्रोत गंगोत्री और यमुनोत्री में खोजना होगा। जहां से यमुना निकली है, गंगा निकली है, वहां तक पहुंचना होगा ।
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