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________________ १५२ / जैन दर्शन और अनेकान्त स्वसमय : परसमय जैनाचार्यों ने समन्वय किया । आचार्य सिद्धसेन और समन्तभद्र से लेकर आचार्य हरिभद्र और उपाध्याय यशोविजय तक और आज आचार्य श्री तुलसी तक भी यह परम्परा बराबर चल रही है। जैन लोग सब दृष्टियों का समन्वय साधते हैं। वे एकान्त दृष्टि से किसी तत्त्व की व्याख्या नहीं कर सकते । वे प्रत्येक तत्त्व में समन्वय खोजते हैं। उनका चिन्तन होता है—यह बात किस अपेक्षा से कही जा रही है। जो कहा जा रहा है, वह गलत नहीं है पर यह परसमय क्यों कहा जा रहा है ? यह एकान्त दृष्टि से ऐसा माना जा रहा है । यदि परसमय को सापेक्ष कर दिया जाए तो वह स्वसमय बन जाएगा । स्वसमय और परसमय में बहुत अन्तर नहीं है । रत्न अलग - अलग पड़े हैं, उनकी एक माला बना दी जाए, रत्नावलि बन जाएगी, हार बन जाएगा। जबतक रत्न अलग-अलग पड़े हैं, रत्नावलि नहीं बन पाएगी। उन्हें पिरो दिया गया तो रत्नावलि या हार बन गया । अनेक विचार अलग-अलग पड़े हैं, बिखरे हुए हैं और अपने ही विचार पर अड़े हुए हैं तो वे परसमय हैं। उन सबको मिला दिया जाए तो स्वसमय बन जाएगा । नित्यवाद सही नहीं है । अनित्यवाद सही नहीं है । नित्य और अनित्यदोनों को मिला दिया जाए तो दोनों सम्यक् बन जाएंगे, स्वसमय बन जाएंगे । परिवर्तन : अपरिवर्तन आचार्य सिद्धसेन ने लिखा- द्रव्यार्थिक नय बिल्कुल सही है। यदि द्रव्यार्थिक नय बिल्कुल सही है तो सांख्य का कूटस्थ नित्य भी बिल्कुल सही है । पर्यायार्थिक नय बिल्कुल सही है और यदि पर्यायार्थिक नय सही है तो बौद्ध का क्षणभंगुरवाद बिल्कुल सही है । यदि एकान्त नित्यवाद निरपेक्ष है और वह कहता है— केवल कूटस्थ नित्य ही सही है, परिवर्तन सही नहीं है, तो वह सम्यक् नहीं है । यदि एकान्त अनित्यवाद निरपेक्ष है और वह कहता है— केवल परिवर्तन ही सम्यक है अपरिवर्तन सही नहीं है तो वह भी सम्यक् नहीं है । परिवर्तन और अपरिवर्तन- दोनों का समन्वय करो, दोनों को एक साथ जोड़ दो तो दोनों सही हो जाएंगे, सम्यक् दर्शन या स्वसमय बन जाएंगे । वैराग्य का आधार : परिवर्तनवाद वस्तु को देखने का यह दृष्टिकोण अनेकान्त की मौलिकता है । हम द्रव्य को किस दृष्टि से देखें ? एक मकान है। हम उसे किस दृष्टि से देखें ? हम सोचें मकान Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only -- www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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