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१०४ / जैन दर्शन और अनेकान्त प्रश्न निरपेक्ष सत्य का
सत्य के दो प्रकार हैं-सापेक्ष सत्य और निरपेक्ष सत्य । कुछ दार्शनिकों ने कहा—जैनदर्शन में जितने सत्य हैं, वे सारे सापेक्ष हैं। कोई निरपेक्ष सत्य नहीं है। ईश्वरवादी, ईश्वर को निरपेक्ष सत्य मानते हैं किन्तु जैनदर्शन में निरपेक्ष सत्य का कोई स्थान नहीं है। कपड़ा सत्य है किन्तु सापेक्ष सत्य है । अभी कपड़ा है और वह दस दिन में बदल जाएगा। सब कुछ सापेक्ष।
वस्तुतः निरपेक्ष सत्य क्या है? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न रहा है। यदि इस प्रश्न पर तात्विक दृष्टि से विचार किया जाए तो जैनदर्शन के सामने यह कोई उलझन नहीं है। उसमें दोनों सत्य स्वीकार्य हैं। पंचास्तिकाय निरपेक्ष सत्य है । वह किसी की अपेक्षा से नहीं है, किसी कारण से नहीं है। वह कारण और अपेक्षा से मुक्त एक अहेतुक सत्य है। उसके पीछे कोई अपेक्षा नहीं है, कोई हेतु नहीं है। वह अपने स्वभाव से सत्य है । अस्तित्व स्वाभाविक है, वहां कार्य-कारण का सिद्धांत समाप्त हो जाता है। अनादि परिणमन है निरपेक्ष सत्य
जैनदर्शन का एक सिद्धांत है-पारिणामिक भाव। उसे दो भागों में विभक्त किया गया—अनादि पारिणामिक और सादि पारिणामिक । जो मूल तत्त्व हैं, अस्तित्व हैं, वे अनादि पारिणामिक हैं। उनके परिणमन का आदि बिन्दु किसी को ज्ञात नहीं है। अस्तित्व का निरन्तर परिणमन होता रहता है, अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता रहता है, उसका कोई आदि बिन्दु नहीं खोजा जा सकता । पंचास्तिकाय, काल, लोक अलोक-ये सब अनादि पारिणामिक हैं।
दूसरा है सादि पारिणामिक । मकान बना। पहले मकान नहीं था, मकान बन गया-यह सादि परिणमन है। कपड़ा नहीं था, कपड़ा बन गया, यह सादि परिणमन है। मनुष्य बन गया--यह सादि परिणमन है। निराधार भ्रम
जितने सादि परिणमन हैं, उनमें कार्य-कारण को खोजा जा सकता है। जितने अनादि परिणमन हैं, उनमें कार्य-कारण को खोजने की कोई अपेक्षा नहीं होती । सादि परिणमन है सादि सत्य और अनादि परिणमन है निरपेक्ष सत्य । ___जैनदर्शन में निरपेक्ष सत्य की स्वीकृति नहीं है' यह भ्रम निराधार : अहेतुक है । जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य का स्पष्ट उद्घोष है । जितने मूल अस्तित्व हे अनादि
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