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कार्य-कारणवाद / १०९ पुद्गल काम नहीं आएंगे। पूरे आकाशमंडल में इतनी सारी व्यवस्थाएं हैं। इसका अर्थ है-जिस समय हम जो काम करते हैं. उस समय उसी वर्गणा के पुद्गल हमारे काम आते हैं। जीवित कार्य का नाम है भावक्रिया __इस सिद्धान्त से साधना का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र फलित होता है—भावक्रिया। यह जैन साधना पद्धति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शब्द है। काम दो प्रकार के होते हैं-मुर्दाकाम और जीवितकाम । एक कार्य मृतकार्य होता है, एक कार्य जीवित कार्य होता है। एक व्यक्ति अंगुली हिला रहा है, माला जप रहा है, अपने इष्ट का स्मरण कर रहा है, यह एक कार्य है। किन्तु यदि उसकी अंगली हिल रही है। माला के मनकों पर और मन चक्कर लगा रहा है दुनिया के किसी कोने में तो वह कार्य मृतकार्य होगा। यदि अंगुली माला के मनकों पर चल रही है और मन भी केवल इष्ट स्मरण में केन्द्रित है, इसका अर्थ है-वह कार्य जीवित कार्य है। इस जीवित कार्य का नाम है- भावक्रिया।
भावक्रिया का अर्थ है-जिस समय हम जो करें, हमारा मन उसी में लगा रहे, हम उसी काम को जानते हुए करें, कोई भी काम अनजाने में न करें । साधना सूत्र के निर्धारण में वर्गणा का सिद्धान्त बहुत सहयोगी बना है। आवश्यक है साधना में अलगाव __ वर्गणा के सिद्धांत का एक फलित है—प्रवृत्ति की सीमा । बोलते समय भाषा वर्गणा के पुद्गल ही काम आ सकते हैं, श्वास-वर्गणा या कर्म-वर्गणा के पुद्गल काम नहीं आ सकते। जिस कार्य में जो निमित्त बनता है, उपादान बनता है, उसी का उपयोग होता है। प्रत्येक वर्गणा की एक निश्चित सीमा है। भाषा-वर्गणा का काम अलग है, मनोवर्गणा का काम अलग है, श्वास-वर्गणा का काम अलग है। सबकी अपनी-अपनी सीमा है, अपना-अपना कार्य है। साधना के क्षेत्र में भी यह अलगाव आवश्यक है। साधक जिस समय खाए, उस समय केवल खाए ही। बोले तो केवल बोले, चले तो केवल चले, सुने तो केवल सुने । यह नहीं होना चाहिए कि चलने के साथ-साथ चिन्तन भी चले। जैन साधनापद्धति में यह मान्य नहीं है। भगवान महावीर ने चलने की विधि का जो निर्देश दिया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा—साधक जिस समय चले उस समय केवल चले। केवल चलने का अर्थ है-न बोले, न सोचे, न खाए। और किसी काम में नहीं, केवल चलने में
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