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११० / जैन दर्शन और अनेकान्त ही शरीर की सारी प्रवृत्ति नियोजित हो जाए । चलने वाला और चलना-दो न रहे, गति और गन्ता एक बन जाए, यह है भावक्रिया। भेद विज्ञान का सूत्र
हृदय जगत् में वर्गणाओं की एक व्यवस्था है। इस पौद्गलिक व्यवस्था से साधना के अनेक सिद्धान्त फलित होते हैं । व्यक्ति दृश्य जगत् में रहता है, अदृश्य जगत् में जीता है। प्रत्येक साधक का चिन्तन होना चाहिए-मैं दृश्य नहीं हूं, दृश्य जगत् मेरा नहीं है क्योंकि दृश्य जगत् केवल पुद्गल है। साधक के चिन्तन का एक संदर्भ होता है-मैं धर्मास्तिकाय नहीं हूं। वह अचेतन है, उसका काम है गति में सहयोग। मैं अधर्मास्तिकाय नहीं हूं, वह भी अचेतन है, उसका काम है स्थिति में सहयोग। मैं आकाश भी नहीं हं. वह भी अचेतन है। मैं पगल भी नहीं हूं, वह मूर्तिमान् है, अचेतन है। मैं इन सबसे परे हूं। अचेतन से परे, मूर्तिमान से परे, मैं केवल चैतन्य हूं। मैं चेतन अमूर्त अस्तित्व का धनी हूं । जिसका स्वरूप बनता है चैतन्य और जिसका लक्षण बनता है उपयोग, वह मैं हूं, साधक जब इस बिन्दु पर . पहुंचता है तो उसकी साधना की दृष्टि बहुत विशद एवं स्पष्ट बन जाती है। रत्नत्रयी का योग घटित हो
तत्त्वज्ञान के बिना साधना का सम्यग् ज्ञान समझ में नहीं आता । साधना आचार का पक्ष है किन्तु सम्यग् ज्ञान और सम्यग् दर्शन के बिना आचार की कल्पना नहीं की जा सकती। भगवान महावीर ने ज्ञान, दर्शन और चरित्र-इन तीनों के योग का प्रतिपादन किया। एक के बिना दूसरा पूर्ण नहीं होता। चरित्र का बिन्दु अन्तिम बिन्दु है । उस तक पहुंचने के लिए दो शर्त हैं । पहली शर्त है-सम्यग् दर्शन होना चाहिए। दूसरी शर्त है–सम्यग् ज्ञान होना चाहिए। इन दो शर्तों के पूरा होने पर ही सम्यम् चारित्र संभव बनता है। इन दोनों के बिना वह संभव नहीं है ।
साधक को केवल तत्त्वज्ञान तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। उसे चारित्र तक जाना चाहिए । वह केवल चारित्र तक ही सीमित न रहे, तत्त्वज्ञान से भी समृद्ध बने । इन दोनों को योग होना अपेक्षित है। कुछ लोग सोचते हैं—साधक को ध्यान करना है, साधना करनी है, उसे तत्त्वज्ञान से क्या मतलब है। यह बहुत एकांगी दृष्टिकोण है। जब तक तात्विक दृष्टि स्पष्ट नहीं होगी, आचार की स्पष्टता नहीं होगी, ध्यान भी नहीं होगा। बिना तत्त्वज्ञान के ध्यान किसका होगा? कैसे होगा? जिसका तत्त्वज्ञान स्पष्ट नहीं है, सम्यग् नहीं है, वह यदि ध्यान करने बैठता है तो हो सकता है उसका
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