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९४ / जैन दर्शन और अनेकान्त सांख्य दर्शन में आत्मा
सांख्य दर्शन में आत्मा सर्वथा अमूर्त है। इसलिए उसमें न आत्मा का बंध होता है और न आत्मा का मोक्ष होता है । उसके अनुसार आत्मा कर्ता नहीं है और एक दृष्टि से भोक्ता भी नहीं है। वह उपचरित दृष्टि से भोक्ता हो सकती है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा सर्वथा अलिप्त नहीं है, सर्वथा अमूर्त नहीं है इसलिए वह सर्वथा शुद्ध नहीं है।
शरीर और आत्मा—दोनों की भिन्नता का बिन्दु हम नहीं खोज सकते । यदि ऐसी अवस्था होती कि एक दिन आत्मा अमूर्त थी, बाद में शरीर के साथ संयोग हआ और वह मूर्त बन गई। जब आत्मा अमूर्त थी, तब बिल्कुल शुद्ध थी और शरीर का योग होते ही अशुद्ध बन गई। अगर ऐसा होता तो कुछ अलग बात होती । किन्तु संसारी आत्मा, अमुक्त आत्मा, कभी भी शरीर से मुक्त नहीं थी, शरीर-शून्य नहीं थी, इसलिए यह कल्पना नहीं की जा सकती। शरीर के साथ उसका सम्बन्ध कब हुआ, यह अज्ञात है। शरीर के साथ उसका सम्बन्ध कैसे हआ, यह अज्ञात है। इतना ज्ञात है-जब से संसार में आत्मा है, वह शरीर के साथ है। इससे आगे कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आत्मा शरीर-परिमाण है ___'आत्मा शरीर के साथ है-इस आधार पर महावीर ने एक और नयी स्थापना की आत्मा शरीर-परिमाण है। आत्मा के बारे में एक सिद्धान्त यह है कि आत्मा व्यापक है । सांख्य दर्शन, नैयायिक दर्शन आदि जितने आत्मावादी दर्शन हैं, वे आत्मा को असीम मानते हैं, व्यापक मानते हैं। उनका मानना है-आत्मा पूरे संसार में फैली हुई है । जैन दर्शन की यह नयी स्थापना है-आत्मा व्यापक नहीं है । वह शरीर-परिमाण है। जितना शरीर है उतने में फैली हुई है। यदि एक चींटी का शरीर है तो आत्मा उस शरीर-परिमाण वाली है। यदि एक हाथी और सारस का शरीर है तो आत्मा उनके शरीर-परिमाण है । मनुष्य के शरीर में वह मनुष्य के शरीर-परिमाण है। सब आत्माएं समान हैं ___एक ओर जैन दर्शन का मानना है-सब जीव समान हैं। न कोई छोटा है और न कोई बड़ा है। दूसरी ओर एक हाथी की आत्मा और एक चींटी की आत्मा में स्पष्ट अन्तर दिखाई देता है। यह कैसे हो सकता है कि सब आत्मा समान हैं ? चींटी की आत्मा छोटी है और हाथी की आत्मा बड़ी है, यह सहज ही मान्य हो जाता है।
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