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________________ आत्मवाद के विविध पहलू धर्म की आराधना का मूल आधार है आत्मा। हमारे शरीर में आत्मा नहीं है। शरीर में आत्मा है, आत्मा अमूर्त है और शरीर मूर्त है । दार्शनिक जगत में एक प्रश्न बहुत चर्चित रहा है-अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? आत्मा और शरीर यौगिक है, एक मिश्रण है, दोनों साथ-साथ चल रहे हैं। पर यह मिश्रण कब बना और कैसे बना? यह सम्बन्ध की बात बहुत जटिल है। आत्मा मूर्त भी, अमूर्त भी __जैनदर्शन ने एक नयी स्थापना की-आत्मा शरीर से बंधी हुई है इसलिए वह सर्वथा अमूर्त नहीं है। आत्मा का अस्तित्व या स्वरूप अमूर्त हो सकता है । उसमें स्वरूपगत अमूर्तता हो सकती है, किन्तु वर्तमान में वह सर्वथा अमूर्त नहीं है । शरीर में बंधी हुई आत्मा मूर्त भी है। यदि आकाश की भांति आत्मा सर्वथा अमूर्त होती तो शरीर के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता। आकाश में वर्षा होती है, सर्दी होती है, धूप होती है, पर आकाश पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता। न आकाश गीला होता है, न आकाश ठंडा होता है और न आकाश गर्म होता है । उस पर इनका कोई प्रभाव नहीं होता। यदि आत्मा आकाश की भांति सर्वथा अमूर्त होती है तो उस पर शरीर का कोई प्रभाव नहीं होता और वातावरण का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं होता, किन्तु इनका आत्मा पर प्रभाव होता है। इसलिए यह मानना बहुत संगत है कि आत्मा कथंचित् मूर्त है । यह मूर्त और अमूर्त का योग कब बना, इसका कोई आदि-बिन्दु ज्ञात नहीं है। जब से आत्मा है, तब से वह शरीर के साथ है और इसीलिए वह मूर्तिमान बनी हुई है । भविष्य के आधार पर कहा जा सकता है-शरीर मुक्त होते ही आत्मा अमूर्त बन जाएगी। शरीर-मुक्त होने के बाद आत्मा पर हमारे जगत का वातावरण और पर्यावरण का कोई प्रभाव नहीं होता । मुक्त आत्मा न विकृत होती है, न अशुद्ध होती है । विकार और आवरण उस आत्मा में है जो आत्मा कथंचित मूर्त बनी हुई है। अमूर्त आत्मा में कोई विकार या आवरण नहीं होता। ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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