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९२ / जैन दर्शन और अनेकान्त है। आचार फलित होता है तत्त्वज्ञान के आधार पर । दोनों में गहरा सम्बन्ध है । इस दृष्टि से तत्त्वज्ञान और आचार को कभी अलग नहीं किया जा सकता। सहज प्रश्न होगा-आदमी को मौन क्यों करना चाहिए? विकास का लक्षण है बोलना। दो-तीन-चार इन्द्रिय वाले प्राणी भी बोलते हैं किन्तु स्पष्ट नहीं बोलते । पशु-पक्षी बोलते हैं किन्तु उनकी भाषा स्पष्ट नहीं होती । स्पष्ट भाषा केवल मनुष्य को मिली है । यदि स्पष्ट भाषा नहीं होती तो मनुष्य का समाज नहीं बनता, इतना विकास नहीं होता। भाषा विकास का मूल आधार है। फिर मौन क्यों? यदि मन का इतना विकास नहीं होता तो मनुष्य आज इतने बड़े-बड़े मकान खड़े नहीं कर सकता था। यदि कहा जाए- चिन्तन मत करो, निर्विचार रहो, यह सामाजिक बात नहीं लगती। न बोलना और न सोचना—यह सामाजिक बात नहीं है। फिर ये साधना के सूत्र क्यों बने?—यह एक ज्वलन्त प्रश्न है। अगर आत्मा का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता तो ये साधना के सूत्र कभी नहीं बन पाते। इसलिए सबसे पहले साधना का आधार, उसकी पृष्ठभूमि, उसका दर्शन और उसका तत्त्वज्ञान समझना बहुत जरूरी है। वह तत्त्वज्ञान जितना स्पष्ट होता है उतना ही साधना के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है।
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