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आत्मवाद के विविध पहलू / ९५ इस प्रश्न पर जैनदर्शन का अभिमत रहा-आत्मा द्रव्य प्रत्येक व्यक्ति में बिल्कुल समान है। प्रत्येक आत्मा के असंख्य प्रदेश या अविभक्त परमाणु हैं। किसी भी आत्मा में एक भी प्रदेश या परमाणु न न्यून है और न अधिक है। सबका प्रमाण समान है किन्तु परिमाण में अन्तर हो सकता है और परिमाण में जो अन्तर होता है वह शरीर के आधार पर होता है । इस विषय को स्पष्ट करने के लिए एक सिद्धांत की स्थापना की गई—संकोच-विस्तारवाद । आत्मा में यह क्षमता है कि वह अपने प्रदेशों का संकोच कर सकती है, विस्तार कर सकती है। आत्मा में संकोच और विस्तार-दोनों होता है । संकोच इतना किया जा सकता है कि सुई की नोक टिके उतने स्थान में अनन्त आत्माएं हो सकती हैं । यदि विस्तार किया जाए तो एक आत्मा समूचे लोकाकाश में फैल सकती है।
चार चीजें समान मानी जाती हैं—लोकाकाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आत्मा। प्रत्येक के असंख्य प्रदेश हैं और सब समान हैं। पूरे लोकाकाश में एक आत्मा फैल सकती है और अनन्त आत्माएं एक सुई की नोक में समा सकती हैं। यह है आत्मा की संकोच-विकोच की शक्ति । संकोच-विस्तार का आधार
केशी स्वामी ने राजा प्रदेशी को बताया-सब जीव समान होते हैं। उन्होंने एक उदाहरण के द्वारा इस तथ्य को समझाया-एक दीप को एक कमरे में रखा, पूरा कमरा प्रकाश से भर गया। उस दीप पर एक बड़ा-सा बर्तन लाकर रख दिया, प्रकाश उसमें सिमट गया, बाहर प्रकाश फैलना बंद हो गया। उसे हटाकर एक बिल्कुल छोटा-सा ढक्कन रखा, प्रकाश उसके भीतर सिमट गया। जैसे दीये के प्रकाश को ढक्कन के आधार पर संकुचित और विकसित किया जा सकता है, उसके प्रकाश से पूरे कमरे को प्रकाशित किया जा सकता है, संकुचित और विस्तृत बनाया जा सकता है, वैसे ही आत्मा शरीर के आधार पर अपना संकोच और विस्तार कर लेती है। आत्मा को बड़ा शरीर मिलेगा तो उसमें फैल जाएगी, छोटा मिलेगा तो उसमें सिकुड़ जाएगी। चींटी की आत्मा को मरकर एक बड़े शरीर में जाना है तो वह उतने में फैल जाएगी और हाथी की आत्मा को मरकर एक छोटे से कीटाणु में पैदा होना है तो उसकी आत्मा उतनी सिकुड़ जाएगी। यह है संकोच और विस्तार । आत्मा में संकोच-विस्तार की क्षमता है। शेष किसी द्रव्य में यह क्षमता नहीं है। न आकाश में संकोच और विस्तार होता है और न किसी दूसरे द्रव्य में ऐसा संभव होता है। आज यह माना जाने लगा है-आकाश सिकड़ता है, आकाश फैलता है, काल भी .
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