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९६ / जैन दर्शन और अनेकान्त
सिकुड़ता और फैलता है। हो सकता है—इस विषय पर एक नया अनुसंधान किया जाए। किन्तु अब तक संकोच और विस्तार की व्याख्या आत्मा के साथ ही की जाती रही है। संकोच और विस्तार सूक्ष्म शरीर के आधार पर होता है, स्थूल शरीर के आधार पर नहीं । स्थूल शरीर को छोड़कर जीव दूसरे जन्म में जाता है । एक हाथी के जीव को मरकर एक छोटे से शरीर में पैदा होना है तो वह सीधा पैदा नहीं होता, उसका सूक्ष्म शरीर, कर्म शरीर पहले ही सिकुड़ना शुरू हो जाता है और वह सिकुड़ा हुआ सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर का उतना ही निर्माण करता है जितना उस जीव का होता है। यह संकोच और विस्तार-सूक्ष्म शरीर के आधार पर होता है। व्यवस्थित स्वीकृति
जो दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं उनके सामने भी एक बहुत बड़ा प्रश्न है-आत्मा व्यापक है किन्तु उसकी सारी प्रवृत्ति शरीर में मिलती है। सुख-दुःख का संवेदन वहां होता है जहां शरीर है । आत्मा व्यापक है और पूरे लोक में फैली हुई है किन्तु सारा ज्ञान और संवेदन इस शरीर के माध्यम से होता है। सांख्यदर्शन ने सूक्ष्मलिंग शरीर का संकोच-विस्तार माना है, शरीर के बिना व्यवस्था सम्यक् बैठती नहीं है। असीम और व्यापक आत्मा कुछ भी नहीं कर सकती। सब कुछ शरीर के माध्यम से होता है। शरीरगत सारी प्रक्रियाओं को स्वीकार करना आवश्यक होता है, इस दृष्टि से यह देह-परिमाण आत्मा की स्वीकृति एक व्यवस्थित स्वीकृति प्रतीत होती है। प्रश्न कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व का ___आत्मा के साथ जुड़ा हुआ एक प्रश्न है-कर्तृत्व और भोक्तृत्व का। आत्मा अपना संकोच और विस्तार करती है, वह क्यों करती है और कैसे करती है ? इसका कारण है-उसमें कर्तृत्व की शक्ति है। यदि उसका कर्तृत्व अपना नहीं होता तो वह कोई संकोच-विस्तार नहीं कर पाती। आत्मा कर्ता है और वह यह करती है अपने कर्म शरीर के कारण । इसका अर्थ है-आत्मा भोक्ता है। करने की स्वतंत्रता और भोगने की स्वतंत्रता—दोनों आत्मा में हैं। आत्मा का लक्षण बन गया—कर्ता और भोक्ता। इस बारे में दार्शनिक जगत में काफी मतभेद हैं । सांख्यदर्शन आत्मा को कर्ता नहीं मानता। उसके अनुसार सारा कर्तृत्व प्रकृति में है। प्रकृति ही कर्म करती है, प्रकृति ही बन्ध करती है और प्रकृति ही मुक्त होती है। आत्मा सर्वथा शुद्ध है। उनके न बन्ध होता है और न मोक्ष ।
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