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६२ / जैन दर्शन और अनेकान्त नानात्व और एकत्व—दोनों सत्य है । एकत्व निरपेक्ष नानात्व और नानात्व निरपेक्ष एकत्व—ये दोनों मिथ्या है । एकत्व आपेक्षिक सत्य है । ‘गोत्व' की अपेक्षा से सब गायों में एकत्व है। पशुत्व की अपेक्षा से गायों और अन्य पशुओं में एकत्व है। जीवत्व की अपेक्षा से पशु और अन्य जीवों में एकत्व है। द्रव्यत्व की अपेक्षा से जीव और अजीव में एकत्व है। अस्तित्व की अपेक्षा से समूचा विश्व एक है। आपेक्षिक सत्य से हम वास्तविक सत्य की ओर जाते हैं, तब हमारा दृष्टिकोण भेदात्मक बन जाता है। नानात्व वास्तविक सत्य है। जहां अस्तित्व की अपेक्षा है, वहां विश्व एक है। किन्तु चैतन्य और अचैतन्य, जो अत्यन्त विरोधी धर्म है, की अपेक्षा से विश्व एक नहीं है। उसके दो रूप हैं—चेतन जगत् और अचेतन जगत् । चैतन्य की अपेक्षा चेतन जगत् एक है किन्तु स्वस्थ चैतन्य की अपेक्षा चेतन एक नहीं है। वे अनन्त हैं। चेतन का वास्तविक रूप
चेतन का वास्तविक रूप है—स्वात्म-प्रतिष्ठान । प्रत्येक पदार्थ का शुद्ध रूप यही स्व-प्रतिष्ठान है। वास्तविक रूप भी निरपेक्ष सत्य नहीं है । स्व में या व्यक्ति में चैतन्य की पूर्णता है । वह एक व्यक्ति-चेतन अपने समान अन्य चेतन व्यक्तियों से सर्वथा भिन्न नहीं होता, इसलिए उनमें सजातीयता या सापेक्षता है।
चेतन और अचेतन में भी सर्वथा भेद ही नहीं, अभेद भी है । भेद है वह चैतन्य और अचैतन्य की अपेक्षा से है । द्रव्यत्व, वस्तुत्व, अस्तित्व परस्परानुगमत्व आदि-आदि असंख्य अपेक्षाओं से उनमें अभेद है।
दूसरी दृष्टि से उनमें सर्वथा अभेद भी नहीं, भेद भी है। अभेद अस्तित्व आदि की अपेक्षा से है, चैतन्य की अपेक्षा से भेद भी है। उनमें स्वरूप-भेद है, इसलिए दोनों की अर्थक्रिया भिन्न होती है। उनमें अभेद भी है, इसलिए दोनों में ज्ञेय-ज्ञायक, ग्राह्य-ग्राहक आदि-आदि सम्बन्ध हैं। ___ संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र-ये तीनों अर्थाश्रयी विचार हैं। ये अर्थ के भेद और अभेद की मीमांसा करने वाले दृष्टिकोण हैं। संग्रह और व्यवहार ___अभेद और भेद में तादात्म्य संबंध है। संबंध दो से होता है। केवल अभेद या केवल भेद से कोई संबंध नहीं हो सकता। अभेद के दो रूप बनते हैं—शुद्ध और अशुद्ध । जहां केवल अस्तित्व का बोध होता है, उसके अतिरिक्त और कुछ
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