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________________ स्याद्वाद और सद्वाद वक्तव्य : अवक्तव्य अनेकान्त की पृष्ठभूमि में अनेक वाद अवस्थित हैं । उदाहरण के लिए अज्ञेयवाद और अव्यक्तवाद, ज्ञेयवाद और वक्तव्यवाद, अनिश्चयवाद, सापेक्षवाद और समन्वयवाद के नाम प्रस्तुत किए जा सकते हैं । जैन दार्शनिकों ने किसी भी द्रव्य को एकांगी दृष्टि से संज्ञेय और अवक्तव्य नहीं माना। उन्होंने द्रव्य को सर्वांगीण दृष्टि से देखा और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रत्येक द्रव्य अज्ञेय और ज्ञेय-दोनों प्रकार के पदों से समन्वित है। उसके अनन्त पर्याय एक साथ वक्तव्य नहीं हैं या जीवन की सीमित अवधि में भी वक्तव्य नहीं हैं, इस अपेक्षा से वह अवक्तव्य है। अवक्तव्य के विषय में दूसरा दृष्टिकोण यह हो सकता है जो पर्याय ज्ञेय बनते हैं उन्हीं का प्रतिपादन किया जाता है । अज्ञेय पर्याय शब्द के द्वारा प्रतिपादित नहीं होते, इसलिए वे अवक्तव्य ही रह जाते हैं। जानना ज्ञान का काम है, बोलना वाणी का । ज्ञान अनन्त है, ज्ञेय अनन्त है किन्तु वाणी अनन्त नहीं है, शब्दकोश अनन्त नहीं है। एक क्षण में अनन्त ज्ञान के द्वारा अनन्त ज्ञेय जाने जा सकते हैं, किन्तु वाणी के द्वारा कहे नहीं जा सकते। इस आधार पर द्रव्य के दो रूप बनते हैं १. अवक्तव्य, २. वक्तव्य। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अनुसार अवक्तव्य का अनन्तवां भाग श्रुतनिबद्ध होता है। स्याद्वाद संभावनावाद हमारा ज्ञेय और वक्तव्य का जगत् बहुत छोटा है, अज्ञेय और अवक्तव्य के महासागर में द्वीप जैसा है। इसलिए भगवान महावीर ने संभावनावाद को स्वीकृति दी। स्याद्वाद को संभावनावाद कहा जा सकता है। 'स्याद्' शब्द के अनेक अर्थ होते १. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ३४१: पण्णवणिज्ज भावा, अंणंतभागो तु अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुयनिबद्धो॥ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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