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________________ ८६ / जैन दर्शन और अनेकान्त प्रयोग किया गया। जैनधर्म के श्रमण-धर्म, आईत्-धर्म और निर्ग्रन्थ-धर्म-ये तीन प्राचीन नाम हैं। श्रमण दूसरे भी थे इसलिए अलग पहचान हो गई अर्हत्-धर्म और आर्हत् भी दूसरी परम्परा में थे अत: फिर अलग पहचान बनी निर्ग्रन्थ-धर्म । भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद कुछ समय तक निर्ग्रन्थ नाम ही प्रचलित रहा। किन्तु उनके निर्वाण की दूसरी शताब्दी में निर्ग्रन्थ नाम भी छूट गया। उसके स्थान पर 'जैन' नाम का प्रचलन शुरू हो गया। आज महावीर के शासन में साधना करने वाले जैन नाम से जाने जाते हैं। वर्तमान में महावीर का शासन जैन-धर्म के नाम से प्रख्यात है। आत्म-विद्या : जैनधर्म का मुख्य तत्त्व जैनधर्म की अपनी विशेषता क्या है ? जो लोग जैन शासन में दीक्षित होकर साधना करते हैं, उनके सामने एक प्रश्न है कि वे साधना क्यों करते हैं ? साधना करने का उद्देश्य क्या है और उसका स्वरूप क्या है ? इन दोनों तत्त्वों को स्पर्श करना बहुत आवश्यक है। जैनधर्म आत्मवादी धर्म है। इसका प्रधान तत्त्व है आत्मा। आत्मा को मानकर साधना और आराधना की जाती है । भारतीय दर्शनों में आत्मवाद का सिद्धान्त पुराना है। उपनिषदों के अध्ययन से पता चलता है कि क्षत्रिय लोग आत्मा के बारे में जानते थे। आत्म-विद्या पर क्षत्रियों का अधिकार था। क्षत्रियों द्वारा ब्राह्मणों को आत्म-विद्या दी गई। जैन-परम्परा के तीर्थंकर अधिकांश क्षत्रिय जाति के हुए हैं ।इससे यह बात स्वत: सिद्ध होती है कि आत्म-विद्या जैनधर्म का मुख्य तत्त्व रहा है। चैतन्य आत्मा का गुण है, अस्तित्व नहीं श्रमण-परम्परा की दो धाराएं हैं—जैन और बौद्ध । बौद्ध आत्मा के बारे में बहुत स्पष्ट भी नहीं हैं और अस्पष्ट भी नहीं हैं । आत्मवादी हैं, यह कहना भी कठिन है और निरात्मवादी हैं, यह कहना भी कठिन है । जिस धर्म में कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद स्वीकृत है उसे अनात्मवादी कहना बहुत कठिन है और आत्मा की स्वीकृति नहीं है, अत: आत्मवादी कहना भी कठिन है । एक अव्याकृत प्रश्न है। किन्तु जैन-दर्शन में आत्मा के बारे में बहुत स्पष्ट अवधारणा है। भगवान महावीर ने आत्मा के बारे में एक नयी स्थापना की। जितने भी आत्मवादी दर्शन हैं, जो आत्मा को स्वीकारते हैं, वे आत्मा को मानते हैं किन्तु आत्मा क्या है? उसका स्वरूप क्या है ? इसका स्पष्ट उत्तर शायद वे नहीं दे पाते। आत्मा चैतन्यमय है, यह कहा जा सकता है किन्तु Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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