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________________ आत्मवाद / ८७ चैतन्य आत्मा का स्पष्ट अस्तित्व नहीं है। वह आत्मा का गुण है, अस्तित्व नहीं है। आत्मा के अवयव हैं ___ आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है। आत्मा एक द्रव्य है, आत्मा एक अस्तिकाय है। यह भगवान् महावीर की बिल्कुल नयी और मौलिक स्थापना है। आत्मा के परमाणु होते हैं। यह बिल्कुल नयी बात है। परमाणु एक तत्त्व है। पुद्गल अचेतन तत्त्व के भी परमाणु और आत्मा के भी परमाणु। जहां परमाणु आता है उसे अचेतन ही समझा जाता है। भगवान् महावीर ने कहा-आत्मा के असंख्य प्रदेशों के एक पिंड का नाम है आत्मा; असंख्य प्रदेशों के एक संघात का नाम है आत्मा। पुद्गल और आत्मा के परमाणुओं में एक मौलिक अन्तर अवश्य है। पुद्गल के परमाणु पृथक्-पृथक होते हैं। एक परमाणु होता है और कई परमाणु मिलकर उनका संघात बन जाता है। वे मिल जाते हैं और बिछुड़ जाते हैं किन्तु आत्मा के परमाणुओं में ऐसा नहीं होता । उन्हें विभक्त नहीं किया जा सकता, पृथक् नहीं किया जा सकता। वे असंख्य परमाणु निरन्तर मिले रहते हैं, अविभक्त रहते हैं इसलिए उनका नाम प्रदेश रखा गया। प्रदेश और परमाणु में परिमाणात्मक अन्तर नहीं है। परिमाण में दोनों समान हैं। केवल संघातात्मक अन्तर है । परमाणु मिल सकते हैं, बिछुड़ सकते हैं। किन्तु प्रदेश उस अवस्था का नाम है जो संघात की अवस्था होती है। परमाणु अलग-अलग होते हैं और दो परमाणु मिल गए तो दो-प्रदेशी स्कन्ध हो गया। तीन परमाणु मिल गए, उसका नाम हो गया तीन-प्रदेशी स्कन्ध । संघात की अवस्था में परमाणु स्कन्ध कहलाता है और पृथक् अवस्था में वह परमाणु कहलाता है । आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं, असंख्य परमाणु हैं, वे कभी पृथक् नहीं होते। हमेशा संघात रूप में रहते हैं, उनको परमाणु नहीं कहा गया, प्रदेश कहा गया। जितने स्थान का अवगाहन परमाणु करता है उतने स्थान का ही अवगाहन प्रदेश करता है । इस आधार पर कहा जा सकता है कि आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं, अर्थात् असंख्य परमाणु हैं। इसका अर्थ है—आत्मा के अवयव हैं। आत्मा अनित्य भी है दर्शन के क्षेत्र में एक चर्चा रही है जिसके अवयव होता है वह अनित्य होता है। जो अवयव-रहित होता है वह नित्य होता है। अगर आत्मा के अवयव माने जाएं, प्रदेश माना जाए, तो आत्मा अनित्य हो जाएगी, शाश्वत नहीं रहेगी। हमारा शरीर एक अवयव है, हाथ-पैर सब अवयव हैं। अवयव हैं इसलिए शरीर शाश्वत Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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