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________________ ८८ / जैन दर्शन और अनेकान्त नहीं होता। घड़ा अनित्य है क्योंकि उसके अवयव होते हैं। मकान अनित्य है क्योंकि उसके अवयव होते हैं। तर्कशास्त्र का एक सिद्धान्त है-जिसके अवयव होते हैं, वह अनित्य होता है। ___आत्मा के बारे में दो अवधारणाएं रही हैं—एक शाश्वतवादी और दूसरी अशाश्वतवादी । सांख्य आदि दर्शनों की आत्मा शाश्वत आत्मा है और बौद्ध-दर्शन की आत्मा अशाश्वत आत्मा है। महात्मा बुद्ध ने किसी भी वस्तु को शाश्वत नहीं माना। जैन-दर्शन के सामने भी एक समस्या आई। अगर आत्मा के अवयव हैं, प्रदेश हैं तो आत्मा को अनित्य मानना पड़ेगा। इस प्रश्न पर जैन-दर्शन ने अनेकान्त दृष्टि से विचार किया और समाधान दिया कि आत्मा को अनित्य भी माना जा सकता है, नित्य भी माना जा सकता है। आत्मा नित्य है तो साथ-साथ अनित्य भी है। केवल नित्य नहीं है, केवल अनित्य नहीं है। आत्मा है मूलद्रव्य - चैतन्य आत्मा नहीं है । चैतन्य आत्मा का स्वरूप है। एक होता है गुण, एक होता है गुणी । जिसमें गुण रहता है, उसे गुणी कहा जाता है। गुणी है आधार, गुण है उसमें रहने वाला। एक है आत्मा और दूसरा है उसका रूप। आत्मा है असंख्य प्रदेशात्मक एक तत्त्व, एक अस्तिकाय और चैतन्य है उसका रूप। चैतन्य आत्मा नहीं, आत्मा चैतन्य नहीं, किन्तु आत्मा चैतन्य का एक रूप है । गुण और गुणी-ये सर्वथा पृथक् नहीं होते इसलिए न चैतन्य आत्मा से सर्वथा अलग होता है और न आत्मा कभी चैतन्य से अलग होती है । दोनों साथ-साथ रहते हैं। तर्कशास्त्र में गुण की परिभाषा है—'सहभावी धर्मो गुणः' । जो निरन्तर साथ रहता है, कभी अलग नहीं होता, उसका नाम है गुण । उष्णता अग्नि का गुण है । कभी भी उष्णता अग्नि से अलग नहीं होती। अग्नि हमेशा गर्म होगी, क्योंकि वह उसका गुण है। गुण गुणी से कभी पृथक् नहीं होता। चैतन्य आत्मा से कभी पृथक् नहीं होता। इस आधार पर बहुत सारे जैन दर्शन के व्याख्याकार भी आत्मा को चैतन्य बताते हैं किन्तु वास्तव में सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें, प्रज्ञात्मक दृष्टि से विचार करें, तो आत्मा और चैतन्य—ये दो बन जाते हैं। आत्मा के मूल द्रव्य और चैतन्य हैं उसमें रहने वाला मूल गुण । दोनों स्वतन्त्र बन जाते हैं किन्तु समग्रता की दृष्टि से दोनों स्वतंत्र नहीं हैं, दोनों निरन्तर साथ में रहने वाले हैं। आत्मा का लक्षण आत्मा का लक्षण क्या है ? यह भी एक प्रश्न है । लक्षण वह होता है जिसके Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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