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आत्मवाद / ८९
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द्वारा किसी चीज को पहचाना जाता है । पहचान का साधन है लक्षण । आत्मा का लक्षण है उपयोग | चैतन्य आत्मा का स्वरूप है किन्तु वह उसका लक्षण नहीं बनता । आत्मा का लक्षण - उपयोग, चैतन्य की प्रवृत्ति । चैतन्य से आत्मा का पता नहीं चलता । चैतन्य की प्रवृत्ति से आत्मा का पता चलता है । मनुष्य गति करता है, चलता है, उसके चलने के पीछे एक इच्छा होती है । वह पहले इच्छा करता है और फिर चलता है । गति का पहला साधन है— इच्छा । इसलिए जीव के दो विभाग किए गए— त्रस और स्थावर । स्थावर गति नहीं करता । त्रस गति करता है । गति करना उसकी इच्छा की बात है । अपनी स्वतंत्र इच्छा से वह चलता है । इच्छा चेतना का एक उपयोग है । इसलिए उपयोग जीव की पहचान है । चलना, बोलना, खाना आदि-आदि प्रवृत्तियों के पीछे ज्ञान का उपयोग है इसलिए आत्मा का लक्षण है उपयोग ।
अन्तर जैन और सांख्य साधना-पद्धति में
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सामान्यत: यह कहा जाता है— आत्मा अमर है, शरीर नश्वर है। जैन दर्शन ने आत्मा को शाश्वत माना किन्तु साथ-साथ में परिवर्तनशील, मरणधर्मा भी माना । वह परिणामधर्मा है । उसमें परिणमन होता है । परिणमन अनित्यता का लक्षण है । जैन दर्शन की दृष्टि से आत्मा नित्य और अनित्य- दोनों है । उसके स्वरूप का कभी परिवर्तन नहीं होता, चैतन्य कभी अचैतन्य नहीं बनता । उसके असंख्य प्रदेशों में परिवर्तन नहीं होता । इस दृष्टि से आत्मा अमर है । किन्तु आत्मा की नाना प्रकार की अवस्थाएं होती रहती हैं, इसलिए आत्मा अनित्य भी है । जो नित्यवादी दर्शन है, उसमें सांख्यदर्शन प्रधान है, उसमें आत्मा को बिल्कुल निर्लिप्त माना गया है। आत्मा में कोई मलिनता नहीं, कोई दोष नहीं । आत्मा सर्वथा निर्लिप्त है। जैनदर्शन में आत्मा को शुद्ध नहीं माना गया । आत्मा के आवरण होता है। वह ज्ञान के आवरण से आवृत्त होती है। मोहनीय कर्म से आत्मा विकृत बनती है। आत्मा में शक्ति का प्रतिस्खलन होता है । सांख्यदर्शन की साधना प्रकृति पर आधारित साधना पद्धति है। जैनदर्शन की साधना-पद्धति आत्मा पर आधारित है। यह दोनों में मौलिक अन्तर है ।
शुद्ध नहीं है शरीरधारी आत्मा
जितनी भी शरीरधारी आत्माएं हैं उन्हें शुद्ध आत्मा नहीं कहा जा सकता। वे अशुद्ध आत्माएं हैं । यदि आत्मा सर्वथा शुद्ध होती तो साधना करने की जरूरत ही
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