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९० / जैन दर्शन और अनेकान्त नहीं होती। साधना की आवश्यकता तभी है जब आत्मा अशुद्ध रहती है। संसारी आत्मा को, पुद्गल-युक्त आत्मा को, यौगिक आत्मा कहा जा सकता है । जैन-दर्शन की दृष्टि से आत्मा के दो प्रकार बन जाते हैं—शुद्ध आत्मा और अशुद्ध आत्मा। शुद्ध आत्मा का अर्थ है-शरीरमुक्त आत्मा और अशुद्ध आत्मा का अर्थ है—शरीरयुक्त आत्मा। शुद्ध आत्मा में कोई भी आवरण नहीं होता, अशुद्धि नहीं होती। सारी अशुद्धियां समाप्त हो जाती हैं। शरीरधारी आत्मा को सर्वथा विशुद्ध नहीं कहा जा सकता। वीतराग आत्मा शुद्ध बन जाती है, फिर भी शरीर शेष रह जाता है, बन्धन शेष रह जाता है। उसे सर्वथा बन्धन-मुक्त नहीं कहा जा सकता। संसारी जीवों की आत्मा बन्धनयुक्त है, आवरणयुक्त है इसलिए अशुद्ध आत्माएं हैं, लौकिक आत्माएं हैं। इनमें आत्मा और पुद्गल—दोनों का योग है। यौगिक हैं हम सब
हम सब यौगिक हैं । दूध में चीनी मिली दी। इस मिश्रण को दूध भी नहीं कहा जा सकता और केवल चीनी भी नहीं कहा जा सकता। दूध और चीनी का मिश्रण है। यह मिश्रण यौगिक कहलाएगा। आम का रस निकाला और दूध मिला दिया। उसे आम कहा जाए या दूध? न आम कहा जा सकता है और न दूध कहा जा सकता है। वह दोनों का योग है, मिश्रण है। प्रत्येक प्राणी की यही अवस्था है। उसे न आत्मा कहा जा सकता है और न पुद्गल कहा जा सकता है । वह आत्मा और पुद्गल का मिश्रण है। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, सब कुछ यौगिक है।
हम प्रत्येक प्रवृत्ति पर विचार करें । मनुष्य भोजन करता है । क्या आत्मा खाती है ? आत्मा को भोजन की जरूरत नहीं है। क्या पुद्गल भोजन करता है ? उसे भी भोजन की जरूरत नहीं है। आहार कौन करता है? न आत्मा आहार करती है और न पुद्गल आहार करता है। आहार करता है आत्मा और पुद्गल का योग । बोलता कौन है ? न आत्मा बोलती है और न पुद्गल बोलता है । आत्मा और पुद्गल का योग बोलता है । अगर आत्मा बोलती तो मुक्त आत्मा भी बोलती ही रहती। अगर आत्मा भोजन करती तो मुक्त आत्मा भी भोजन करती ही रहती। बड़ी समस्या पैदा हो जाती । जहां मुक्त आत्माएं हैं वहां खेती होती ही नहीं। उन्हें खाना भी उपलब्ध नहीं होता, बड़ी समस्या पैदा हो जाती। साधना के सूत्र शरीरमुक्त आत्मा के आधार पर
आदमी सोचता है। कौन सोचता है ? चिन्तन कौन करता है? क्या आत्मा
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