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________________ १३४ / जैन दर्शन और अनेकान्त का ज्ञान निर्वाणवाद को समझने के लिए बहुत आवश्यक है। कैसा होता है निर्वाण? स्थूल दृष्टि से लगता है-निर्वाण एक ऐसी अवस्था है, जहां शरीर नहीं होता, मनोविनोद नहीं होता, मन नहीं होता, चिंतन नहीं होता, स्मृति नहीं होती, कल्पना नहीं होती और विकास की योजना नहीं होती । निर्वाण एक ऐसी स्थिति है जहां भोजन नहीं होता, सोना नहीं होता, जागना भी नहीं होता। निर्वाण एक ऐसा स्थल है जहां मकान नहीं होते, महानगर नहीं होते, गांव भी नहीं होते। निर्वाण भूमि में न उद्यान होते हैं, न पेड़ होते हैं, न फल होते हैं, न फूल होते हैं, कुछ भी नहीं होता। प्रश्न हो सकता है-यह कैसा मोक्ष, जिसमें सब कुछ छूट जाता है? निठल्ला बनाता है निर्वाण । क्या यह कोई अवस्था है ? हमारा अनुभव शरीरवादी अनुभव है। हमने शरीर के माध्यम से सब कुछ किया है। शरीर से अलग होकर किसी अवस्था की कल्पना भी हमारे लिए खतरनाक बन जाती है। कायोत्सर्ग की साधना में पूरा शिथिलीकरण होता है, स्थूल शरीर से संपर्क विच्छिन्न हो जाता है। इस अवस्था में भी आदमी घबरा जाता है। शरीर छूट रहा है, यह सोचते ही व्यक्ति का मानस प्रकम्पित हो जाता है। शरीर से विलग अपने अस्तित्व की बात बहुत भयानक होती अन्तिम लक्ष्य है-निर्वाण व्यक्ति का सारा अनुभव शरीराश्रित अनुभव है। इस अवस्था में शरीर मुक्त या अशरीर होने की बात समझ में नहीं आ सकती, इसीलिए प्रवर्तक धर्म बहुत प्रिय लगता है। निवर्तक धर्म बहुत प्रिय नहीं लगता, अच्छा भी नहीं लगता। जैनदर्शन ने निर्वाण का प्रतिपादन किया। उसका अन्तिम लक्ष्य निर्वाण है, अशरीर अवस्था में चले जाना है। इस बिन्दु पर व्यक्ति को सोचना होगा-क्या उस अवस्था में जाकर कुछ नयी बात मिलेगी या जो है उसे भी खो देना होगा? उसमें खोना ही खोना है, पाना कुछ भी नहीं है। प्रश्न होता है—निर्वाण को क्यों अपनी कल्पना का विषय बनाया जाए और क्यों उसके लिए मन में प्यार जगाया जाए? यह बड़ा प्रश्न है। जब निर्वाण का लक्ष्य सामने नहीं रहता है तो निवृत्ति प्रधान साधना भी अकिंचित्कर बन जाती है। यदि साधना को चलना है तो निर्वाणवाद को लक्ष्य बनाए रखना होगा। यदि निर्वाणवाद को लक्ष्य बनाए रखना है तो उसे और अधिक स्पष्ट करना होगा, निर्वाण के स्वरूप को और अधिक स्पष्टता से समझना होगा। ____Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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