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________________ पर इसकी स्वतन्त्र सत्ता का आधार यह संघात - भेदात्मक गुण है । चैतन्य भी असाधारण गुण है । अचेतन से चेतन की प्रक्रिया भिन्न होती है । ग्रहण, परिणमन, व्युत्सर्जन, स्वीकरण, सजातीय प्रजनन, वृद्धि, अनुभूति, ज्ञान आदि ऐसे धर्म हैं, जो चेतन में ही प्राप्त होते हैं। चेतन अरूपी है, इन्द्रियातीत है, उसका अस्तित्व चैतन्य गुण से गम्य है। 1 जीव और पुद्गल – इन दोनों अस्तिकायों के योग से विश्व की विविध परिणतियां होती हैं। तीन अस्तिकाय अपनी स्वरूप - मर्यादा तक ही परिवर्तित होते हैं । वे बाह्य निमित्तों से प्रभावित नहीं होते और न वे दूसरे द्रव्यों को प्रभावित करते हैं । उनका अस्तित्व और क्रिया सब दिशाओं में समान रूप से है । इसीलिए अमेरिकी भौतिक विज्ञानवेत्ता ए. ए. माईकेलसन और ई. डब्ल्यू. मोरले, ईथर सम्बन्धी परीक्षणों में सफल नहीं हुए। उन्होंने क्लीवलैण्ड में सन् १८८१ में एक भव्य परीक्षण किया । परीक्षण का निष्कर्ष स्याद्वाद और जगत् / ३३ उनके परीक्षण के पीछे निहित सिद्धान्त काफी सीधा था । उनका तर्क था कि यदि सम्पूर्ण आकाश केवल ईथर का एक गतिहीन सागर है तो ईथर के बीच पृथ्वी की गति का ठीक उसी तरह पता लगाना चाहिए और पैमाइश होनी चाहिए, जिस तरह नाविक सागर में जहाज के वेग को मापते हैं। जैसा कि न्यूटन ने इंगित किया था, जहाज के अन्दर के किसी यान्त्रिक परीक्षण द्वारा शान्त जल में चलने वाले जहाज की गति मापना असम्भव है । नाविक जहाज की गति का अनुमान सागर में एक लट्ठा फेंककर और उससे बंधी रस्सी की गांठों के खुलने पर नजर रखकर लगाते हैं । अतः ईथर के सागर में पृथ्वी की गति का अनुमान लगाने के लिए माईकेलसन और मोरले ने लट्ठा फेंकने की क्रिया सम्पन्न की । अवश्य ही यह लट्ठा प्रकाश की किरण के रूप में था । यदि प्रकाश सचमुच ईथर में फैलता है, तो इसकी गति पर पृथ्वी की गति के कारण उत्पन्न ईंथर की धारा का प्रभाव पड़ना चाहिए। विशेषतौर पर, पृथ्वी कि गति की दिशा में फेंकी गयी प्रकाश-किरण में ईथर की धारा से उसी तरह हल्की बाधा पहुंचानी चाहिए, जैसी बाधा का सामना एक तैराक को धारा के विपरीत तैरते समय करना पड़ता है, इसमें अन्तर बहुत थोड़ा होगा, क्योंकि प्रकाश का वेग (जिसका ठीक-ठीक निश्चय सन् १८४१ में हुआ) एक सेकेण्ड में १,८६,२८४ मील है, जबकि सूर्य के चारों ओर अपन धुरी पर पृथ्वी का वेग केवल बीस मील प्रति सेकेण्ड होता है, अतएव ईथर - धारा को विपरीत दिशा में फेंके जाने पर प्रकाश-किरण की गति १,८६,२६४ मील होनी चाहिए और यदि सीधी दिशा में फेंकी जाए तो १,८६,३०४ मील । इन विचारों को मस्तिष्क Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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