SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ / जैन दर्शन और अनेकान्त में रखकर माईकेलसन और मोरले ने एक यन्त्र का निर्माण किया, जिसकी सूक्ष्मदर्शिता इस हद तक पहुंची हुई थी कि वह प्रकाश के तीव्र वेग में प्रति सेकेण्ड एक-एक मील के अन्तर को भी अंकित कर लेता था । इस यन्त्र में, जिसे उन्होंने ' व्यतिकरणमापक' (erferometer) नाम दिया, कुछ दर्पण इस तरह लगाए हुए थे कि एक प्रकाश-किरण कोदो भागों में बांटा जा सकता था और एक साथ ही दो दिशाओं में उन्हें फेंका जा सकता था । यह सारा परीक्षण इतनी सावधानी से आयोजित और पूरा किया गया कि इसके परिणामों में किसी तरह के सन्देह की गुंजाइश नहीं रह गयी। इसका परिणाम सीधे-साधे शब्दों में यह निकला - 'प्रकाश - किरणों के वेग में, चाहे वे किसी भी दिशा में फेंकी गयी हों, कोई अन्तर नहीं पड़ता ।' आइंस्टीन : ईथर के अस्तित्व का निरसन 'माइकेलसन और मोरले के परीक्षण के कारण वैज्ञानिकों के सामने एक व्याकुल कर देने वाला विकल्प आया । उनके सामने यह समस्या थी कि वे ईथर सिद्धान्त को— जिसने विद्युत्-चुम्बकत्व और प्रकाश के बारे में बहुत-सी बातें बतलायी थीं— छोड़ें या उससे भी अधिक मान्य कोपरनिकस - सिद्धान्त को, जिसके अनुसार पृथ्वी स्थिर नहीं, गतिशील है । बहुत से भौतिक विज्ञानवेत्ताओं को ऐसा लगा कि यह विश्वास करना अधिक आसान है कि पृथ्वी स्थिर है बनिस्बत इसके कि तरंगें — प्रकाश-तरंगें, विद्युत् चुम्बकीय तरंगें, बिना किसी सहारे के अस्तित्व में रह सकती हैं। यह एक बड़ी विकट समस्या थी— इतनी विकट कि इसके कारण वैज्ञानिक विचारधारा पच्चीस वर्षों तक भिन्न-भिन्न रही, एकमत न हो सकी। कई नयी कल्पनाएं सामने प्रस्तुत की गयीं और रद्द भी कर दी गयीं। उस परीक्षण को मोरले और दूसरे लोगों ने फिर शुरू किया, पर परिणाम वही निकला---' ईथर में पृथ्वी का प्रत्यक्ष वेग शून्य है । " ईथर प्रकाश की गति को प्रभावित नहीं करता इसलिए आइन्स्टीन ने उसके अस्तित्व का निरसन किया । किन्तु गति-नियामक तत्त्व के अभाव में पदार्थ अनन्त में कहीं भटक जाते और वर्तमान विश्व एक दिन प्रकाश-शून्य हो जाता । दृश्य जगत् का निमित्त जीव और पुद्गल बाह्य निमित्तों से भी प्रभावित होते हैं, परिवर्तित होते हैं । जीव पुद्गल को प्रभावित करता है और पुद्गल जीव को प्रभावित करता है, इसलिए इनमें १. डॉ. आईन्सटीन और ब्रह्माण्ड, पृ० ४३-४६ ॥ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy