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स्यावाद और सद्वाद / ७७ अप्रतिपादित हैं, यह सूचित करने के लिए ही ‘स्यात्' शब्द का प्रयोग होता है । इस पद्धति में एक धर्म के माध्यम से पूर्ण द्रव्य का प्रतिपादन किया जाता है, इसलिए इसे 'सकलादेश' अथवा युगपत् (एक साथ) अनन्त धर्मों का प्रतिपादन करने वाला वाक्य कहा गया है। नय वाक्य ही वास्तविक है
प्रश्न फिर वही उपस्थित होता है कि आखिर एक धर्म को मुख्य और शेष अनन्त धर्मों को गौण मानकर किया जाने वाला प्रतिपादन अनन्त धर्मों का प्रतिपादक कैसे हो सकता है ! इसके समाधान में एक युक्ति प्रस्तुत की गई कि अभेदवृत्ति और अभेदोपचार से युगपत् अनन्त धर्मों का प्रतिपादन किया जा सकता है । इस वक्तव्य का सहज ही यह निष्कर्ष है कि प्रमाण-वाक्य उपचरित वाक्य है । नयवाक्य विकलादेश अथवा एक क्षण में एक धर्म का प्रतिपादन होने के कारण अनुपचरित वाक्य है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि नय-वाक्य ही वास्तविक है। जानने और कहने की युगपत् पद्धति हमारे उपयोग में नहीं आती । हमारे लिए क्रम पद्धति ही उपयोगी
नय : दुर्नय ___नय दृष्टि अथवा नय वाक्य के साथ ‘स्यात्' शब्द भले ही जुड़ा हुआ न हो, फिर भी वह उसमें अन्तर्गर्भित है, यह सच्चाई बहुत स्पष्टता के साथ अनुभव करनी चाहिए। एक द्रव्य के जितने पर्याय हैं, उतने ही उसके निरूपण और विश्लेषण के प्रकार हैं और जितने निरूपण अथवा विश्लेषण के प्रकार हैं, उतने ही नय हैं। एक द्रव्य में होने वाले सभी पर्याय सदृश ही नहीं होते, परस्पर विरोधी भी होते हैं । जितने विरोधी हैं, उतनी ही उनके सह-अस्तित्व की अपेक्षाएं हैं। सापेक्ष दृष्टि से निरूपण
और विश्लेषण को सत्य माना जा सकता है। शेष पर्यायों को अस्वीकार कर निरपेक्ष दृष्टि से किया जाने वाला निरूपण और विश्लेषण दुर्नय बन जाता है। त्रि-मूल्यात्मक दृष्टिकोण पाश्चात्य तर्कशास्त्र में तार्किक निर्णय त्रिमूल्यात्मक माना जाता हैनिश्चितता संभाव्यता
असंभाव्यता
सत्य मूल्य
आंशिक सत्य-मूल्य
असत्य मूल्य
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