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________________ ७६ / जैन दर्शन और अनेकान्त नय और प्रमाण इस व्यवस्था के आधार पर प्रमाण और नय की परिभाषाएं निर्धारित की गईं । अनन्त धर्मात्मक द्रव्य या अखण्ड वस्तु का यथार्थ ज्ञान 'प्रमाण' होता है । अनन्त धर्मात्मक द्रव्य के एक धर्म का यथार्थ ज्ञान 'नय' होता है। इन परिभाषाओं की स्थापना के पश्चात् यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्या कोई व्यक्ति द्रव्य के त्रैकालिक धर्मों को जान सकता है । इसका उत्तर मिला, अतीन्द्रियज्ञानी जान सकता है, इन्द्रियज्ञान की सीमा में रहने वाला नहीं जान सकता। तो फिर अनन्त धर्मात्मक द्रव्य को किस आधार पर जाना जा सकता है । स्यात् शब्द : सापेक्षता का सूचक इन्द्रियों में पांच धर्मों (स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द) को जानने की क्षमता है । मन में स्मृति, कल्पना और चिन्तन की क्षमता है । इन्द्रिय और मन के आधार पर केवल पुद्गल द्रव्य का ग्रहण और संकलन हो सकता है । चित्त या बुद्धि में विश्लेषण और निर्धारण की क्षमता है । प्रतिभा अथवा औत्पत्तिकी बुद्धि में अदृष्ट, अश्रुत, अपठित, इन्द्रिय और मन के द्वारा अगृहीत धर्मों को जानने की क्षमता है । द्रव्य का अस्तित्व हमें बुद्धि द्वारा ज्ञात होता है । वास्तव में बुद्धि द्वारा द्रव्य का एक धर्म ही ज्ञात होता है किन्तु एक ही आश्रय में पृथक्-पृथक् अनेक धर्मों का ज्ञान होता है और वह ज्ञान जब संकलनात्मक होता है तब द्रव्य की स्थापना हो जाती है । इससे फलित होता है कि हमारे जानने की प्रक्रिया 'नय' है । 'प्रमाण' नयों का संकलन मात्र है । यदि प्रमाण की स्वतन्त्र व्यवस्था न की जाती, नय को ही प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता तो कोई कठिनाई नहीं होती । नय के साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग द्रव्य के अनन्त धर्मों की सापेक्षता का सूचक था, इसलिए नय के द्वारा द्रव्य के धर्म और अनन्त धर्मात्मक द्रव्य-दोनों का ज्ञान सहज सम्भव हो जाता । सकलादेश : विकलादेश एक द्रव्य के प्रतिपादन के विषय में प्रमाण की सार्थकता सिद्ध नहीं की जा सकती । एक साथ अनेक धर्म नहीं कहे जा सकते, इस अवस्था में 'प्रमाण वाक्य' नहीं बन सकता । इस कठिनाई को पार करने के लिए 'सकलादेश' और 'विकलादेश' की व्यवस्था की गई । 'स्यात्' शब्द नय से तोड़ प्रमाण के साथ जोड़ा गया । एक काल-क्षण में एक शब्द एक धर्म का ही प्रतिपादन कर सकता है। 'शेष अनन्त धर्म Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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