SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्यावाद और सद्वाद / ७५ समन्वयवाद नित्य और अनित्य दोनों परस्पर विरोधी हैं। सत् और असत्-दोनों परस्पर विरोधी हैं। इन विरोधी धर्मों के सह-अस्तित्व के विषय में एक तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि दो मुख्य एक साथ नहीं रह सकते । किन्तु एक मुख्य और एक गौण-ये दोनों एक साथ रह सकते हैं । इस गौण और मुख्य करने की पद्धति का नाम 'समन्वय' 'द्रव्य नित्य है', इस वक्तव्य में ध्रौव्य अंश मुख्य हैं, उत्पाद और व्यय- ये दोनों अंश गौण हैं। 'द्रव्य अनित्य है'-इस वक्तव्य में उत्पाद और व्यय मुख्य हैं, और ध्रौव्य अंश गौण है। एक अंश की मुख्यता और दूसरे अंश की गौणता—यही दो विरोधी धर्मों के सह-अस्तित्व का आधार बनता है। जितने विरोधी धर्म हैं उन सबमें सह-अस्तित्व है। उनका सम्बन्ध-सूत्र है-समन्वय । इसके द्वारा किसी भी अंश के अस्तित्व में हस्तक्षेप नहीं होता किन्तु सम्बन्ध-सूत्र की खोज की जाती है। यह स्याद्वाद का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। सद्वाद ___जैन दर्शन के चिन्तन की शैली का नाम अनेकान्त दृष्टि और प्रतिपादन की शैली का नाम स्याद्वाद है । एक धर्म का सापेक्ष प्रतिपादन करने वाले नय वाक्य को 'सद्वाद' कहा जाता है। एक धर्म का निरपेक्ष प्रतिपादन करने वाला वाक्य 'दुर्नय' है। भगवान् महावीर के युग में प्रमाण और नय का स्पष्ट भेद नहीं था। उस समय प्रत्येक द्रव्य तथा उसके गुण और पर्याय का नयदृष्टि से विचार किया जाता था। द्रव्यार्थ, पर्यायार्थ, अव्यवच्छित्ति, व्यवच्छिति आदि-आदि प्रयोग उसके स्वयंभू प्रमाण हैं । उस समय नय वाक्य के साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता था। 'सिअ अत्थि', 'सिअ नत्थि,' 'सिय सासएं' 'सिअ असासए'-ये शब्द नय-वाक्य के आगमयुगीन उदाहरण हैं। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् जब प्रमाण की व्यवस्था हुई तब प्रमाण, नय और दुर्नय—ये तीन विभाग किए गए। प्रमाण का प्रतिनिधि शब्द है-'स्याद्वाद', नय का प्रतिनिधि शब्द है-'सद्वाद' और दुर्नय का प्रतिनिधि शब्द है—'सदेववाद'। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy