________________
७४ / जैन दर्शन और अनेकान्त संगत बनता है। विरोधी विचार के कुछ बिन्दु
१. द्रव्य वास्तविक है, पर्याय वास्तविक नहीं है। २. प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप में अवस्थित है। ३. प्रत्येक द्रव्य सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट है-न कभी उत्पन्न होता है और
न कभी नष्ट होता है। ४. कार्य और कारण भिन्न नहीं है। ५. पर्याय वास्तविक है। उससे भिन्न द्रव्य का अस्तित्व नहीं है। ६. केवल वर्तमान क्षण ही वास्तविक है। ७. कारण के बिना ही कार्य उत्पन्न होता है। ८. उत्पाद निर्हेतुक होता है।
९. विनाश निर्हेतुक होता है। परिणमन का तारतम्य
द्रव्य में स्वाभाविक परिणोम्होता रहता है। वह किसी बाह्य कारण से प्रेरित नहीं होता। उस परिणमन में कल्पनातीत तारतम्य होता है। वर्गीकृतरूप में उसके छह स्थान बतलाए गए हैं
१. अनंतभागहीन अनंतभाग अधिक २. असंख्यातभागहीन असंख्यातभाग अधिक ३. संख्यातभागहीन संख्यातभाग अधिक ४. संख्यातगुणहीन संख्यातगुण अधिक ५. असंख्यातगुणहीन असंख्यातगुण अधिक
६. अनंतगुणहीन अनंतगुण अधिक कभी पर्याय का परिणमन इतना सघन होता है कि द्रव्य का कहीं पता ही नहीं चलता और कभी पर्याय का परिणाम इतना विरल होता है कि द्रव्य उभरकर सामने आ जाता है। इसी परिणमन के आधार पर यह सिद्धान्त फलित होता है कि द्रव्य-राशि (Mass) को ऊर्जा (Energy)में और ऊर्जा को द्रव्य-राशि में बदला जा सकता है।
१. भगवती सूत्र, २५/३५०।
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org