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७८ / जैन दर्शन और अनेकान्त
स्याद्वाद भी त्रि- मूल्यात्मक हैसार्वभौम नियम
( प्रमाण या नय)
सामान्य नियम
( प्रमाण या नय)
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सापेक्ष - सत्य- मूल्य असत्य मूल्य
निरपेक्ष- सत्य - मूल्य 'एवकार' का प्रयोग निरपेक्ष- सत्य - मूल्य और सापेक्ष - सत्य - मूल्य — दोनों के साथ होता है किन्तु निरपेक्ष सामान्य नियम के साथ जब उसका प्रयोग होता है तब नय दुर्नय बन जाता है । 'स्यात् अस्ति एव' - यह प्रमाण अथवा नय का प्रतीक है । 'सत् एव' - यह दुर्नय का प्रतीक है। इसमें निरपेक्ष सार्वभौम नियम और सापेक्ष सामान्य नियम की सूचना देने वाला 'स्यात्' शब्द प्रयुक्त नहीं है, सम्मत भी नहीं है । प्रमाण की सप्तभंगी
निरपेक्ष सामान्य नियम
(दुर्नय)
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मध्यवर्ती आचार्यों ने प्रमाण और नय की सप्तभंगी की संयोजना की—
१. स्यात् नित्य एव
२. स्यात् अनित्य एव
३. स्यात् नित्य एव स्यात् अनित्य एव
४. स्यात् अवक्तव्य एव
५. स्यात् नित्य स्यात् अवक्तव्य एव
६. स्यात् अनित्य स्यात् अवक्तव्य एव
७. स्यात् नित्य स्यात् अनित्य स्यात् अवक्तव्य एव
द्वैत सर्वत्र सम्मत है
नित्य और अनित्य — यह एक विरोधी युगल है । अनेकान्तवाद के अनुसार सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा अनित्य जैसा कोई द्रव्य नहीं है। इसलिए केवल नित्य या केवल अनित्य का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। जैसे चेतन और अचेतन - यह द्रव्य दृष्टि से द्वैतवाद है । वैसे ही नित्य और अनित्य- यह गुण या धर्म की दृष्टि से द्वैतवाद है । द्रव्य हो या उसका धर्म, द्वैत सर्वत्र सम्मत है। प्रथम दो भागों में इस विरोधी युगल या द्वैत का प्रतिपादन किया गया है। आत्मा अथवा पुद्गल कोई भी द्रव्य हो, वह धौव्यांश की अपेक्षा से नित्य है और पर्यायांश की अपेक्षा से अनित्य है । ‘स्यात् नित्य' और ‘स्यात् अनित्य' – ये दो भंग स्याद्वाद के आधारभूत तत्त्व हैं भगवान् महावीर ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक—इन दो नयों की दृष्टि से द्रव्य की
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