________________
११८ । जैन दर्शन और अनेकान्त गया-'सुचित्रा कम्मा सुचित्रा फला भवंति दुचिन्ना कम्मा दुचिना फला भवंति।' अच्छे कर्म का अच्छा फल होता है और बुरे कर्म का बुरा फल होता है-यह एक सामान्य बात है। किन्तु इसके अपवाद बहुत हैं । कृत कर्मों का भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, यह भी एक सामान्य सिद्धान्त है। जब तक कर्म के सारे अपवादों को, विशेष नियमों को नहीं जाना जाता तब तक कर्म की बात पूरी समझ में नहीं आती। कर्म को सब कुछ मान लेने पर एक निष्ठशावादी धारणा, भाग्यवादी धारणा बन जाती है और आदमी अकर्मण्य होकर बैठ जाता है। वह सोचता है-मैं क्या करूं ? कर्म का फल ऐसा ही था, कर्म का योग ऐसा ही था। मेरे कर्म में ऐसा ही लिखा है। कभी-कभी जैन लोग भी यह दोहरा देते हैं भगवान की ऐसी मर्जी थी, विधाता ने ऐसा ही लेख लिख दिया, मैं क्या करूं । इन गलत धारणाओं ने समाज को बहुत अकर्मण्य और निठल्ला बना दिया, उसके पुरुषार्थ में बहुत कमी आ गई। कर्मवाद में पुरुषार्थ का मूल्य
पुरुषार्थ और कर्मवाद को कभी अलग नहीं किया जा सकता । ईश्वरवादी धारणा में यदि पुरुषार्थ नहीं होता है तो आश्चर्य की बात नहीं है किन्तु यदि कर्मवादी धारणा में पुरुषार्थ नहीं होता है तो इससे बड़ा कोई आश्चर्य नहीं। यह बहुत बड़ा आश्चर्य है। पुरुषार्थ और कर्मवाद का जोड़ा है। इन्हें कभी अलग नहीं किया जा सकता किन्तु कर्मवाद को सही न समझने के कारण पुरुषार्थवादी दर्शन भी अकर्मण्य दर्शन जैसा बन जाता है। कर्म को बदला जा सकता है
भगवान महावीर ने कर्म के विषय में अनेक सिद्धांत दिए। अच्छे कर्म का अच्छा फल होता है और बुरे कर्म का बुरा फल होता है, यह एक सामान्य सिद्धान्त है। पुरुषार्थ के द्वारा इसे भी बदला जा सकता है । एक व्यक्ति ने बहुत अच्छा कर्म किया, क्षयोपशम भी हुआ और पुण्य का बन्ध भी हो गया। किन्तु कुछ समय बाद उसने बहुत बुरे कर्म किए और उसका परिणाम हुआ—उसने जो अच्छा किया, वह बुरे में संक्रांत हो गया। एक व्यक्ति ने बहुत बुरा किया, किन्तु उसने बाद में बहुत अच्छे कार्य किए, यह सम्भव है कि उसका बुरा कर्म अच्छे में संक्रांत हो जाए। यह संक्रमण का सिद्धान्त है। एक कथा के द्वारा यह तथ्य अत्यन्त स्पष्ट बन पाएगापुरुषार्थ का परिणाम
दो व्यक्तियों ने ज्योतिषी को हाथ दिखाया । ज्योतिषी ने हाथ देखकर बड़े भाई
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org