________________
स्यावाद और जगत् । ३९ कुछ समालोचकों ने लिखा है कि स्याद्वाद हमें पूर्ण या निरपेक्ष सत्य तक नहीं ले जाता, वह पूर्ण सत्य की यात्रा का मध्यवर्ती विश्राम-गृह है । किन्तु इस समालोचना में तथ्य नहीं है । स्याद्वाद हमें पूर्ण या निरपेक्ष सत्य तक ले जाता है। उसके अनुसार पंचास्तिकायमय जगत् पूर्ण या निरपेक्ष सत्य है। पांचों अस्तिकायों के अपने-अपने असाधारण गुण हैं और उन्हीं के कारण उनकी स्वतन्त्र सत्ता है । इसके अस्तित्व, गुण और कार्य की व्याख्या सापेक्ष दृष्टि के बिना नहीं की जा सकती। चेतन में केवल चैतन्य ही नहीं है, उसके अतिरिक्त अनन्त धर्म और हैं, किन्तु चेतन चैतन्य धर्म की अपेक्षा से ही है, शेष धर्मों की अपेक्षा से वह चेतन नहीं है।' द्रव्य की सहज सापेक्षता
एक धर्म से कोई द्रव्य नहीं बनता। सामान्य और असामान्य, सम्भूत होकर द्रव्य का रूप लेते हैं । वे सब सर्वथा अविरोधी नहीं होते, कथंचित् विरोधी भी होते हैं। वे सर्वथा विरोधी ही नहीं होते, कथंचित् अविरोधी भी होते हैं। यदि सर्वथा अविरोधी ही हों तो वे अनेक नहीं हो सकते और यदि वे सर्वथा विरोधी ही हों तो एक नहीं हो सकते । यह अविरोधी और विरोधी भावों का जो सामंजस्य या सह-अस्तित्व है, वह द्रव्य की सहज सापेक्षता है और द्रव्यगत सापेक्षता की सामंजस्यपूर्ण व्याख्या हमारी बौद्धिक सापेक्षता है। ___हम किसी भी निरपेक्ष सत्य को ऐसा नहीं पाते जो अपने स्वरूप की व्याख्या में सापेक्ष न हो । वेदान्ती ब्रह्म को पूर्ण या निरपेक्ष सत्य मानते हैं पर वह भी स्वभावगत सापेक्षता से मुक्त नहीं है। उपनिषद् की भाषा में 'ब्रह्म सकम्प भी है, निष्कम्प भी है, दूर भी है, समीप भी है, सबके अन्तर में भी है और सबके बाहर भी है। वह अणु से अणु और महान् से महान् है। भगवान महावीर की भाषा में जीव सकम्प भी है और निष्कम्प भी है, सवीर्य भी है और निर्वीर्य भी है। इन विरोधी रूपों में ही जगत् पूर्णता अर्जित करता है । तात्पर्य यह है कि पूर्ण वही हो सकता है जिसमें विरोधी धर्मों का समांजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व हो।
-स्वरूप सम्बोधन, श्लोक ३
१. प्रमेयत्वादिभिर्घमरचिदात्मा चिदात्मक।
ज्ञानदर्शनतस्तस्मात् चेतना-चेतनात्मकः॥ २. तदेजति तनेजति तरे तदन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः!! ३. कठोपनिषदः अणोरणीयान् महतो महियान ! ४. भगवती सूत्र, २५/४१ ५. वही, १/३७५
- ईशावास्योपनिषद्, ५
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org