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१४४ / जैन दर्शन और अनेकान्त
आधार पर सुख की कल्पना की गई। दुःखवाद और सुखवाद --- दोनों जुड़े हुए हैं। व्यक्ति को दुःख से सर्वथा मुक्ति पाकर सुख की उस भूमिका तक पहुंचना है जहां कोई दुःख न हो । सुख की परिभाषा
भारतीय चिन्तन में, आध्यात्मिक चिन्तन में उस सुख को सुख नहीं माना गया, जिसका परिणाम दुःखद होता है। उसे सुख माना गया, जिसका परिणाम सुखद होता है । जिस प्रवृत्ति से प्रवृत्तिकाल में भी सुख होता है और परिणामकाल में भी सुख होता है, वह सुख है । इन्द्रियों के जितने विषय हैं, प्रवृत्ति काल में सुख देते हैं किन्तु परिणामकाल में दुःखद हो जाते हैं। इसलिए उन्हें दुःख ही माना गया । इन्द्रिय विषयों को सुख नहीं माना गया किन्तु सुख उन्हें माना गया, जो प्रवृत्तिकाल और परिणामकालदोनों अवस्थाओं में सुखद होते हैं, जिनमें कहीं भी दुःख का अनुभव नहीं होता । जन्म और मरण का चक्र टूटे, यह वैराग्य या आत्मा की साधना का मूल आधार रहा है । जो मौत से डरता है, वह मौत से छुट्टी पा लेता है। जो मौत से आशंकित है, जो यह नहीं चाहता कि मैं मरूं, वह मौत से छुट्टी पा लेता है । मृत्यु से अमरत्व की ओर प्रस्थान, चिरसुख की दिशा में प्रस्थान है ।
अध्यात्मवाद : मूल बीज की खोज
षडजीवनिकायवाद, पुनर्जन्मवाद, विकासवाद और वैराग्यवाद - सब मिलकर अध्यात्मवाद को जन्म देते हैं, अध्यात्मवाद के ये मूलभूत आधार तत्व बन जाते हैं। आज अध्यात्म की बहुत चर्चा है। जब तक जीवनिकाय को नहीं समझा जाता, पुनर्जन्म को नहीं समझा जाता, जैविक विकास को नहीं समझा जाता और इस परिभ्रमण के चक्र को नहीं समझ लिया जाता, तब तक अध्यात्मवाद की बात समझ में नहीं आ सकती ।
अध्यात्मवाद मूल बीज की खोज है। पुनर्जन्म का बीज कहां है ? दुःख का बीज कहां है ? जन्म और मरण के चक्र का बीज कहां है ? इन सारे बीजों की खोज करना अध्यात्मवाद है । राग और द्वेष—ये दो मूलभूत बीज हैं। इन बीजों का अंकुरण होता है तो जीवों का विस्तार होता है । राग और द्वेष के कारण छह जीवनिकाय बनते हैं। यदि राग-द्वेष नहीं होता तो जीवों के छह निकाय नहीं बनते । केवल एक ही निकाय रहता, केवल आत्मवाद होता किन्तु जीवों का विस्तार नहीं होता। जीवों का जो विस्तार हुआ है नानात्व हुआ है, वह रोग और द्वेष के कारण हुआ है ।
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