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द्वैतवाद / १७ धौव्य प्रकम्पन के मध्य अप्रकम्पन है, परिवर्तन के मध्य शाश्वत है। पर्याय (उत्पाद-व्यय) अप्रकम्प की परिक्रमा करता हुआ प्रकम्प और शाश्वत की परिक्रमा करता हुआ परिवर्तन है। द्रव्य ध्रौव्य का प्रतिनिधित्व करता है। अस्तित्व में अपरिवर्तनशील और परिवर्तनशील-दोनों प्रकार के तत्त्व विद्यमान रहते हैं। कोई भी अस्तित्व शाश्वत की सीमा से परे नहीं है और कोई भी अस्तित्व परिवर्तन की मर्यादा से मुक्त नहीं है। ठीक ही कहा है
'द्रव्यं पर्यायवियुतं, पर्याया द्रव्यवर्जिताः।
क्व कदा केन किं रूपाः, दृष्टाः मानेन केन वा ।।' यह पर्याय का द्वैतवाद है। परिणामीनित्य
आंधी चल रही है । उसमें जितनी शक्ति आज है, उतनी ही कल होगी, यह नहीं कहा जा सकता। जो कल थी, उसका आज होना जरूरी नहीं है। इस दुनिया में एकरूपता के लिए कोई अवकाश नहीं है । जिसका अस्तित्व है, वह बहुरूप है । जो बाल आज सफेद हैं वे कभी काले भी रहे हैं। जो आज काले हैं, वे कभी सफेद होने वाले हैं। वे एक रूप नहीं रह सकते । केवल बाल ही क्या, दुनिया की कोई भी वस्तु एकरूप नहीं रह सकती। जैन दर्शन ने अनेकरूपता के कारणों पर गहराई से विचार किया है, अन्तर्बोध से उनका दर्शन किया है। विचार और दर्शन के बाद एक सिद्धान्त की स्थापना की। उसका नाम है—'परिणामी-नित्यत्ववाद' । ध्रुवता और परिणमन ।
इस सिद्धान्त के अनुसार विश्व का कोई भी तत्त्व सर्वथा नित्य नहीं है। कोई भी तत्त्व सर्वथा अनित्य नहीं है। प्रत्येक तत्त्व नित्य और अनित्य-इन दोनों धर्मों की स्वाभाविक समन्वति है । तत्त्व का अस्तित्व ध्रुव है। इसलिए वह नित्य है। ध्रुव परिणमन-शून्य नहीं होता और परिणमन ध्रुव-शून्य नहीं होता। इसलिए वह अनित्य भी है। वह एकरूप में उत्पन्न होता है और एक अवधि के पश्चात् उस रूप से च्युत होकर दूसरे रूप में बदल जाता है। इस अवस्था में प्रत्येक तत्त्व उत्पाद, व्यय और धौव्य—इन तीनों धर्मों का समवाय है। उत्पाद और व्यय—ये दोनों परिणमन के आधार बनते हैं और ध्रौव्य उनका अन्वयीसूत्र है । वह उत्पाद की स्थिति में भी रहता है और व्यय की स्थिति में भी रहता है । वह दोनों को अपने साथ जोड़े हुए है । जो
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