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१२२ / जैन दर्शन और अनेकान्त वास्तविक सच्चाई : व्यावहारिक सच्चाई
'सब जीव समान हैं' यह निश्चयनय की बात है, वास्तविक सच्चाई है । व्यावहारिक सच्चाई नहीं है । व्यवहारनय की दृष्टि से सब जीव समान नहीं हैं । उनमें भेद है और वह भेद कर्मकृत है-कर्म के द्वारा वह भेद किया गया है। एक एकेन्द्रिय जीव है, एक पंचेन्द्रिय जीव है । एक अमनस्क है, एक समनस्क है । एक बहुत विकासशील है, एक बहुत अवरुद्ध विकास वाला है। यह जो विकास का तारतम्य है, भेद है वह सारा कर्म के द्वारा होता है। प्रत्येक आत्मा की स्वभावगत समानता और कर्मकृत विविधता-निश्चयनय और व्यवहारनय की दृष्टि से ये दोनों सच्चाइयां मान्य हैं। आचारांग सूत्र में कहा गया है-कोई आत्मा हीन नहीं है, कोई आत्मा अतिरिक्त नहीं है। इसका अर्थ है-वास्तविक दृष्टि से कोई आत्मा हीन नहीं, कोई अतिरिक्त नहीं। व्यवहार दृष्टि से हीन भी है और अतिरिक्त भी है। ये सारी सच्चाइयां कर्मवाद के सन्दर्भ में ही स्पष्ट हो पाती हैं। इसलिए कर्मवाद जैनदर्शन का एक प्रमुख सिद्धान्त बन गया। उसका सहचारी सिद्धान्त है पुरुषार्थवाद । कर्मवाद और पुरुषार्थवाद के आधार पर उसने ईश्वर के सिद्धान्त को अस्वीकार कर दिया।
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