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७२ / जैन दर्शन और अनेकान्त को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार छोटे-छोटे कण पूरे ब्रह्माण्ड में फैले हुए हैं । वे कभी कण के रूप में दिखाई देते हैं और कभी तरंग के रूप में।
इन कणों की परिवर्तनशीलता और उनके व्यवहार की अनेकरूपता का कारण पुद्गल द्रव्य की विविध परिणतियां हैं। पूरा आकाश पुद्गल वर्गणाओं से भरा हुआ है। वे कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त, कभी स्थूल और कभी सूक्ष्म, इस प्रकार नानारूपों में बदलती रहती हैं। एकराशि की पुद्गल वर्गणा दूसरी राशि में बदल जाती है। ये सारे परिवर्तन ही उनकी व्यवहार की भिन्नता के निमित्त बनते हैं, इसीलिए हमें पता चलता है कि एक ही प्रकार के कण सदा एक जैसा व्यवहार नहीं करते। वे भिन्न-भिन्न समयों में भिन्न-भिन्न प्रकार का व्यवहार करते हैं।
हम वर्तमान पर्याय के आधार पर पदार्थ की व्याख्या करते हैं, यह हमारा सापेक्ष दृष्टिकोण हैं । अपेक्षा के मुख्य दृष्टि-बिन्दु चार हैं
१. द्रव्य २. क्षेत्र ३. काल
४. भाव-पर्याय या परिणमन। एक के लिए जो गुरु है वही दूसरे के लिए लघु, एक के लिए जो दूर है वही दूसरे के लिए निकट, एक के लिए जो ऊर्ध्व है वही दूसरे के लिए निम्न, एक के लिए जो सरल है, वही दूसरे के लिए वक्र । अपेक्षा के बिना किसी की व्याख्या नहीं हो सकती-गुरु और लघु क्या है ? दूर और निकट क्या है ? ऊर्ध्व और निम्न क्या है ? सरल और वक्र क्या है? द्रव्य, क्षेत्र आदि की निरपेक्ष स्थिति में उसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। द्रव्य अनन्त गुणों और पर्यायों का सहज सामंजस्य है । इसके सभी गुण और पर्याय सापेक्ष दृष्टि से नहीं समझे जा सकते हैं। एक गुण, द्रव्य के जिस स्वरूप का निर्माण करता है, वह उसी गुण की अपेक्षा से होता है, दूसरे गुण की अपेक्षा से नहीं होता। चेतन द्रव्य चैतन्य गुण की अपेक्षा से चेतन है। उसके सहभावी अस्तित्व, वस्तुत्व आदि गुणों की अपेक्षा वह चेतन नहीं है। निरूपण पद्धति : सापेक्षता
कोई भी व्यक्ति द्रव्य को एक ही दृष्टि से नहीं देखता । देश, काल और परिस्थिति का परिवर्तन होने पर दृष्टि में भी परिवर्तन होता है, निरूपण की पद्धति भी बदलती
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