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१२६ / जैन दर्शन और अनेकान्त
नियमों की समीक्षा किए बिना शायद पूरी बात समझ में नहीं आती । क्षेत्र सम्बन्धी रोग होते हैं, काल सम्बन्धी रोग होते हैं, कीटाणुजनित रोग होते हैं, बहुत सारे रोग संक्रामक होते हैं । एक संक्रामक बीमारी फैली, हजारों-हजारों आदमी एक साथ बीमार हो गए। वह असातवेदनीय से उत्पन्न रोग नहीं है । किन्तु उस रोग ने असावेदनीय कर्म का उदय ला दिया । यदि समग्र दृष्टि से रोग के बारे में नियमों की समीक्षा की जाए तो एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत हो पाएगा।
संदर्भ बुढ़ापे का
जीवन का एक सन्दर्भ है— बुढ़ापा । चार दुःख माने गए हैं— जन्म, मरण, रोग और बुढ़ापा | बुढ़ापा किस कर्म के उदय से आता है—यह इसका एक मुख्य नियम है । अमुक काल के बाद बुढ़ापा शुरू हो जाता है। एक नियम बन गया। प्राचीन साहित्य में कहा जाता है— चालीस वर्ष के बाद शरीर की शक्तियां, इन्द्रियों की शक्तियां, क्षीण होने लग जाती हैं। उनकी शक्ति में कमी आने लग जाती है। कुछ इन्द्रियों की शक्तियां पचास वर्ष में कम हो जाती हैं। साठ वर्ष में वह शक्ति और कम हो जाती है। सत्तर वर्ष के बाद बुढ़ापा शुरू होता है, आदमी बूढ़ा बन जाता है । काल के कारण बुढ़ापा आता है।
अपवाद भी है
बुढ़ापे का दूसरा नियम है— भाव या स्वभाव । मनोभाव बुढ़ापे के बहुत कारण बनते हैं। सत्तर वर्ष के बाद बुढ़ापा शुरू होता है और अगर कषाय प्रबल हैं, तो संभव है वह बुढ़ापा पचास वर्ष के बाद भी शुरू हो जाए। जिस व्यक्ति में बहुत निराशा, बहुत कुंठा, बहुत उदासी और बहुत बेचैनी है तो सम्भव है उसके सत्तर वर्ष के बाद आने वाला बुढ़ापा चालीस या पचास वर्ष के बाद ही शुरू हो जाए। जिसका दृष्टिकोण बहुत विधायक है, वह सत्तर वर्ष के बाद भी जवान बना रहे, बूढ़ा न बने । यह अपवाद भी हो सकता है।
बुढ़ापा क्षेत्र-जन्य भी है
क्षेत्र भी एक निमित्त बनता है । ग्रीष्म-प्रधान क्षेत्र में बुढ़ापा जल्दी आने लगता है । शीत- प्रधान क्षेत्र में बुढ़ापा देरी से आता है। सर्दी और गर्मी के अपने नियम हैं । एक क्षेत्र का ऐसा नियम होता है, जहां ताजगी बनी रहती है और एक क्षेत्र का ऐसा नियम होता है, जहां जल्दी रुक्षता आ जाती है। क्षेत्र के दो विशेष नियम माने गए - एक रुक्ष क्षेत्र और दूसरा स्निग्ध क्षेत्र । काल भी दो प्रकार के माने गए- – स्निग्ध
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