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१४० / जैन दर्शन और अनेकान्त चार गतियां हैं-नर्क तिर्यच, मनुष्य और देव। षड्जीवनिकायवाद
चतुर्गतिवाद पुनर्जन्मवाद का ही एक सिद्धान्त है और इसी के साथ जुड़ा हुआ है षडजीवनिकायवाद । जीव एक ही रूप में नहीं रहता। जीव के अनेक रूप हैं। जो जैसा है वह वैसा ही नहीं रहता। कुछ दर्शन मानते हैं—मनुष्य मरकर मनुष्य होता है और पशु मरकर पशु होता है। जैनदर्शन ने इस अभिमत को स्वीकृत नहीं किया। उसने पुनर्जन्म के सिद्धान्त की, जन्म-मरण के चक्र के सिद्धान्त की, जो व्याख्या की है, उससे षडजीवनिकायवाद का सिद्धान्त फलित होता है । जीवों के छह निकाय होते हैं । पृथ्वीकाय, अपकाय, तैजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय-ये छह निकाय हैं । इन निकायों में जीव भ्रमण करता रहता है । नरकगति, देगगति और मनुष्यगति—इनमें त्रसनिकाय होता है। तिर्यंच-गति में शेष पांच निकाय होते हैं, वसनिकाय भी होता है । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी आत्मा होती है। इन पांचों निकायों को जीव मानना जैनदर्शन की मौलिक प्रस्थापना है। किसी भी भारतीय या पाश्चात्य दर्शन में जीवों का ऐसा वर्गीकरण उपलब्ध नहीं होता। आत्मा के तीन विभाग __ अरस्तू ने आत्मा को तीन भागों में विभक्त किया है.. वनस्पति
• पशु-पक्षी .
. मनुष्य प्लेटो ने भी आत्मा के तीन वर्ग प्रस्तुत किए हैं
• बौद्धिक आत्मा • अबौद्धिक कुलीन आत्मा
• अबौद्धिक अकुलीन आत्मा जैनदर्शन की मौलिक विशेषता __ जैनदर्शन में जीवनिकायवाद का जो निरूपण है, वह किसी भी भारतीय या अभारतीय दर्शन में प्राप्त नहीं है । यह जैनदर्शन की अपनी मौलिक विशेषता है। कुछ विचारकों का अभिमत है-यह जीवनिकायवाद का वर्गीकरण अविकसित मानव या आदिकालीन समाज के चिन्तन का प्रतिफल है । आदिकालीन प्रकृति के प्रत्येक तत्त्व को देव माना जाता रहा है। पानी को देव माना गया, पहाड़, नदी, सरोवर, अग्नि
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